बंटवारे के लिए देश में रुपये हों, धन हों, तो उसके पहले काम या मेहनत का होना ज़रूरी है. बिना काम या मेहनत किए धन अर्जन ही नहीं होगा तो फिर बंटवारा किस चीज का और कैसे होगा? बिना ज़मीन को जोते-बोए अनाज पैदा ही नहीं होगा. इसके लिए किसान को परिश्रम करना ही होगा. बाद में रोटी बनाने वाले रसोइए को परिश्रम करना होगा, तब कहीं जाकर रोटियां बन पाएंगी. हज़ारों वर्ष पहले अपने पूर्वज जंगलों या पहाड़ों पर रहते थे, पर आज तो वह युग नहीं है. हम सबके लिए अब यह संभव नहीं है. बिना अथक परिश्रम किए, हम भूखों मर जाएंगे. अगर कोई व्यक्ति काम नहीं कर रहा है, बैठा है तो निश्चित है कि कोई दूसरा व्यक्ति उन दोनों जितना काम कर रहा है, नहीं तो उन दोनों के लिए ही खाने को कुछ नहीं होगा. इसी नैसर्गिक सूत्र को ध्यान में रखते हुए पाश्चात्य विद्वान महर्षि पाल ने कहा था कि जो आदमी काम न करे, उसे खाने को न मिले. काम करने की ज़िम्मेदारी प्रकृति ने हमारे ऊपर लादी है. जिस तरह उपार्जित धन का बंटवारा निश्चित है, उसी तरह काम करने की ज़िम्मेदारी का बंटवारा भी आवश्यक है.

इस समय तो हमें यही विचार करना है कि परिश्रम से जो आय होती है, उसका वितरण किस ढंग से किया जाए? काम और अवकाश के वितरण में ज़्यादा कठिनाई नहीं है. आदमी आदमी के काम और अवकाश में आप बहुत ज़्यादा फर्क़ नहीं कर सकते, पर आधुनिक आविष्कृत बिजली और मशीनों से आय में बहुत बड़ा फर्क़ हो सकता है.

यह ज़रूरी नहीं है कि जो काम करे, वही खाए. एक आदमी अपनी ज़रूरत से कई गुना ज़्यादा पैदा कर सकता है और करता है, नहीं तो छोटे बच्चे भूखे ही रहेंगे और वृद्ध आदमी, जिनकी काम करने की शक्ति समाप्त हो गई है, क्षुधा से पीड़ित होकर मर जाएंगे. कई एक मेहनती पुरुष देखने में आए हैं, जिनके पास अपने दो हाथों के सिवाय कोई सहारा नहीं था, तो भी उन्होंने अपने परिवार का, बच्चों का पालन-पोषण किया, वृद्ध माता-पिता की देखभाल की और अपने परिश्रम द्वारा ही जमींदार को अच्छी-खासी रकम भाड़े या लगान के रूप में दी.
आज के युग में जब बिजली और मशीनरी का आविष्कार हो गया है, निश्चय ही आज का मानव 100 वर्ष पहले के मानव की अपेक्षा एक हज़ार गुना से भी ज़्यादा पैदा कर सकता है. इस तरह मानव बुद्धि द्वारा उपयोग में लाई गई मशीनरी, बिजली, वाष्प आदि से मानव का परिश्रम कम हो जाता है और उसे अवकाश का समय अधिक मिल जाता है. यह अवकाश या फुरसत एक आरामदेह चीज है. इसका भी बंटवारा होना उतना ही आवश्यक है, जितना कि धन या काम का. मान लीजिए, एक आदमी 10 घंटे काम करके 10 आदमियों को 1 दिन के लिए सहारा देता है. वे 10 आदमी उस काम को बांट सकते हैं कि रोजाना 1-1 आदमी 10-10 घंटे काम करें और बाक़ी 9-9 दिन अवकाश में आराम करें या यह भी कर सकते हैं कि हर एक आदमी 1-1 घंटा नित्य काम करे और नित्य 9-9 घंटे आराम करे. इसी तरह के कई नुस्खे अपनी इच्छानुसार या सुविधानुसार मानव बना सकता है. यह भी तो हो सकता है कि उन 10 में से 3 आदमी 10-10 घंटे काम करें. वे जो पैदा करेंगे, वह निश्चय ही 30 के लिए पर्याप्त होगा, जिससे बाक़ी 7 को केवल काम ही न करना पड़े, बल्कि 14 जितना खा भी सकें और उन 3 आदमियों को अनवरत काम करते रख सकें. एक यह भी व्यवस्था हो सकती है कि सब मिलकर ज़्यादा से ज़्यादा समय तक दैनिक रूप से काम करें. पूर्ण शिक्षित या वयस्क होने तक काम करते रहें, बाद में काम बंद करके जीवन भर आराम करें.
इसी तरह के बीसों विभिन्न प्रकार के तरीक़ों से काम और अवकाश का वितरण हो सकता है. इन्हीं काम और अवकाश के विभिन्न वितरण क्रमों को अलग-अलग नाम से संबोधित किया जाता है:
1. गुलामी, 2. दासता, 3. सामंतशाही, 4. पूंजीवादी परंपरा, 5. समाजवादी व्यवस्था और साम्यवादी व्यवस्था.
क्रांति का इतिहास इन्हीं तथ्यों का सूचक है. मानव अपनी तत्सामयिक परिस्थितियों को बदलने के लिए जो संघर्ष करता है, अपने हित में जो उचित व्यवस्था समझ कर उसे प्राप्त करने के लिए संघर्ष करता है, उसे क्रांति कहते हैं. ख़ैर, इस समय तो हमें यही विचार करना है कि परिश्रम से जो आय होती है, उसका वितरण किस ढंग से किया जाए? काम और अवकाश के वितरण में ज़्यादा कठिनाई नहीं है. आदमी आदमी के काम और अवकाश में आप बहुत ज़्यादा फर्क़ नहीं कर सकते, पर आधुनिक आविष्कृत बिजली और मशीनों से आय में बहुत बड़ा फर्क़ हो सकता है. एक धनी व्यक्ति के दिन-रात में आप 24 घंटे से ज़्यादा समय नहीं बना सकते, पर उसके कोष में आप 24 करोड़ रुपये आसानी से बना सकते हैं.

महावीर प्रसाद आर मोरारका का जन्म 12 अगस्त, 1919 को नवलगढ़ (झुंझनू) राजस्थान में हुआ था. उद्योगपति, स्वप्नदृष्टा और लेखक से कहीं अधिक वह उदात्त मानवीय मूल्यों के संवाहक थे. उनकी गणना भारत के प्रमुख उद्योगपतियों में की जाती है.

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