Santosh-Sirसंसद और सांसदों के तरीके कैसे बदलते हैं, इसका एक उदाहरण आपको बताते हैं. उदाहरण के केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी का नाम है. पर इसके पहले अगर हम संसद का इतिहास देखें, तो पाएंगे कि पहले संसद की बैठकें नियमित तौर पर होती थीं और वहां सभी विषय बहुत गंभीरता के साथ उठाए जाते थे. हर सांसद अपने को देश का सांसद मानता था, क्योंकि उस समय यह धारणा थी कि क्षेत्र का प्रतिनिधित्व विधायक करेगा, जो क्षेत्र की समस्याओं को हल करेगा और सांसद सामान्य तौर पर उन मुद्दों पर ध्यान देगा, जिनका रिश्ता देश के साथ है. उन दिनों ज़्यादातर सांसद इसी सिद्धांत के ऊपर काम करते थे.
संसद के सदस्य, चाहे वे राज्यसभा में रहे हों या लोकसभा में, बहुत ज़िम्मेदारी से काम करते थे. हम कुछ नाम याद करें, जिनमें भूपेश गुप्ता, ज्योर्तिमय बसु, राज नारायण, चंद्रशेखर जैसे लोग ज़्यादातर राज्यसभा में रहे और उन्होंने बड़े-बड़े मुद्दे उठाए. लोकसभा में नाथ पाई, मधुलिमये, किशन पटनायक, जार्ज फर्नांडीज और उसके पहले फिरोज गांधी, डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे बहुत सारे सांसद रहे, जिन्होंने हमेशा देश से जुड़े मुद्दों को संसद में उठाया. संसद में उनके ऊपर बहसें हुईं और बावजूद इसके कि तब कांग्रेस का प्रचंड बहुमत था. लेकिन, जहां कांग्रेस को समझ में आया कि विपक्ष की बात में दम है, वहां उसने उसे स्वीकार किया और उन दिनों भी बड़े-बड़े मंत्रियों के इस्ती़फे विपक्ष द्वारा उठाए गए सवालों के ऊपर हुए. संसद में बहसें होती थीं, पर उन बहसों में गर्मागर्मी नहीं होती थी. तर्क सामने आते थे. बहस के बाद संसद का सेंट्रल हॉल उन बहसों की चर्चा का केंद्र होता था, न कि आज की तरह गप्पों का. उन दिनों सांसद संसद में बैठना अपना धर्म मानते थे. आज सांसद संसद के उपस्थिति रजिस्टर में दस्तखत करना तो अपना धर्म मानते हैं, लेकिन संसद में बैठना अपना धर्म नहीं मानते. आज इसका उदाहरण देखना हो, तो आप कभी भी 12 बजे के बाद की संसद की कार्यवाही राज्यसभा टीवी या लोकसभा टीवी के ऊपर देख लीजिए और तब हाथ कंगन को आरसी क्या वाली कहावत सही साबित होती दिखाई देगी.
चूंकि संसद में सारी महत्वपूर्ण बहसें हो जाती थीं, फैसले हो जाते थे, इसलिए संसदीय समिति में वही विषय जाते थे, जिन पर या तो बहस न करानी हो या जिनकी जांच-परख करनी हो. पर अब संसदीय समितियों ने एक छोटी संसद का रूप ले लिया है. अब संसद में बहस नहीं हो पाती. संसद में बैठे ज़्यादातर लोगों का ज्ञान अपने चुनाव क्षेत्र तक सीमित रह गया है. संसद में बहुत कम ऐसे सांसद हैं, जो देश से जुड़े हुए विषयों को उठाते हैं. इसलिए गंभीर विषय संसदीय समितियों के पास चले जाते हैं. हालांकि, संसदीय समितियों में भी दलीय आधार पर बहस होती है, पर वहां सांसद तब तक दलीय आधार पर गतिरोध नहीं कायम करते, जब तक उनके पार्टी नेता के ऊपर सवालिया निशान न खड़ा होने लगे.

आज अटल बिहारी वाजपेयी बीमार हैं. उनकी स्मृति का लोप हो रहा है, उन्हें बहुत सारी चीजें याद नहीं रहतीं. लेकिन, अटल बिहारी वाजपेयी की अपनी ज़िंदगी शानदार ज़िंदगी रही. अटल बिहारी वाजपेयी के साथी तो उनकी हिम्मत, उनकी मेहनत को लेकर किस्से सुनाते ही हैं, लेकिन बहुत सारे किस्से भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी ने भी मुझे सुनाए, जिनमें अटल बिहारी वाजपेयी की सोच, उनकी हिम्मत और देश को लेकर उनकी दृष्टि मेरे दिमाग में अंकित हो गई है.

पर यहां जो मैं बात कहना चाहता हूं, वह सन् 65 की लड़ाई के बाद की है. सन् 65 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद अचानक सेना में पहाड़ी युद्ध या माउंटेन वार को लेकर खर्चा ज़्यादा होने लगा, क्योंकि उस समय तक हमारी सेना के पास पहाड़ पर लड़ने की कोई ट्रेनिंग नहीं थी और सन् 62 में चीन का झटका हम झेल चुके थे. सन् 65 की लड़ाई में पाकिस्तान से हमने जीत हासिल की, लेकिन वह जीत बहुत बड़ी क़ीमत चुकाने के बाद मिली. इसलिए भारत की सेना ने नए सिरे से ट्रेनिंग देनी शुरू की. चूंकि सेना ने ट्रेनिंग देनी शुरू की और किसी को उसका कोई अनुभव नहीं था, इसलिए उसके ऊपर खर्चा होना शुरू हुआ. दिल्ली में बैठे सांसद इसकी आलोचना करने लगे. उन्हें लगा कि सेना ख्वामख्वाह खर्चा कर रही है. सेना परेशान कि उसे चीन और पाकिस्तान दोनों से पहाड़ी लड़ाई लड़नी है और माउंटेन वार का कोई ज्ञान उसके अफसरों को नहीं है, इसकी जल्दी से जल्दी ट्रेनिंग देनी चाहिए. लोकसभा में सवाल उठने लगे कि इतना खर्चा सेना क्यों कर रही है, क्या ज़रूरत है? दिल्ली में बैठे लोग यह समझ ही नहीं पाए, विशेषकर सांसद कि आख़िर वे तकलीफें होती क्या हैं, जो पहाड़ पर लड़ने वाले सिपाहियों को झेलनी पड़ती हैं. दरअसल, सांसदों को उस समय के नौकरशाह समझाते थे कि सेना ख्वामख्वाह यह खर्चा कर रही है.
जब हंगामा ज़्यादा बढ़ गया, तो एक संसदीय समिति को माउंटेन वार फेयर या विंटर वार फेयर की ट्रेनिंग देखने के लिए भेजना तय हुआ. इस समिति में लगभग 20 सांसद सोनमर्ग, जो कारगिल के पास है, में एक अस्थायी शिविर देखने के लिए गए और इन सांसदों में सुशीला रोहतगी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नाम शामिल थे. जैसे ही उक्त सांसद कारगिल के पास बने अस्थायी शिविर में पहुंचे, ठंड की वजह से उनकी हालत खराब हो गई. कुछ लोगों को सांस लेने में दिक्कत होने लगी. सेना ने उनके लिए विशेष इंतजाम किए. एक ऐसा टेंट मंगवाया, जिसके अंदर गर्म हीटर लगवाए गए. सांसदों को फर के कोट पहनने के लिए दिए गए. पर यह पहला क़दम था. अफसरों की चिंता थी कि जहां माउंटेनिंग वार की ट्रेनिंग चल रही है, वहां इन सांसदों को लेकर जाना चाहिए या नहीं, क्योंकि शायद वे वहां का माहौल बर्दाश्त न कर पाएं. वे कैसे देख पाएंगे कि वहां का हाल क्या है? टाइगर हिल से ऊपर वह शिविर लगा हुआ था.
टाइगर हिल के बारे में आपको बताएं कि वहां कॉपर यानी तांबे की खान का एक बड़ा क्षेत्र है. वहां छोटे-छोटे ढेलों की शक्ल में तांबा पड़ा दिखाई देता है. देखने में वह बहुत छोटा लगता है, लेकिन आप उठाएं, तो भारी होता है और किसी के सिर पर मार दें, तो सिर फूट जाता है. उसी टाइगर हिल से ऊपर यह शिविर लगा था. अगले दिन इन सांसदों को ट्रेनिंग देखने के लिए जाना था, लेकिन बीस लोगों में से उन्नीस लोगों ने ट्रेनिंग देखने के लिए जाने से मना कर दिया, क्योंकि उन्हें वहीं सांस लेने में दिक्कत हो रही थी. उन्होंने कहा कि अगर हम ट्रेनिंग देखने गए, तो हम मर जाएंगे. ये सांसद फर के कोट पहने और उसी गरम टेंट में बैठकर अच्छा खाना-पीना करना चाहते थे. चूंकि कोई उनके ऊपर दबाव नहीं डाल सकता था, इसलिए सेना ने कहा कि ठीक है, आप यहीं रहें. पर एक सांसद ने कहा, मैं ट्रेनिंग जहां भी हो रही है, वहां जाऊंगा. उनके लिए पहाड़ी घोड़े मंगवाए गए और उन अकेले सांसद ने कहा, मैं घोड़े पर नहीं बैठूंगा, मैं आगे चलूंगा. वह सबेरे सात बजे तैयार होकर ट्रेनिंग देखने के लिए सेना के अफसरों के साथ आगे बढ़ने लगे. पर सेना के अफसरों को एक चिंता हो गई कि कहीं ऐसा न हो कि ऑक्सीजन की कमी की वजह से उन्हें (सांसद) वापस नीचे लाना पड़े और उस समय माउंटेन वार में घायलों को लाने-ले जाने का भी कोई पुख्ता प्रबंध नहीं था.
वह अकेले सांसद श्री अटल बिहारी वाजपेयी थे. वाजपेयी जी कारगिल के अस्थायी बेस शिविर से पैदल टाइगर हिल से आगे जाने के लिए निकले और दस मिनट के बाद उनकी सांस फूलने लगी. ऑक्सीजन कम हो गई. सेना के अधिकारियों ने इसका एक इंतजाम कर रखा था. उनके आस-पास चार लोग बड़े-बड़े ऑक्सीजन सिलेंडर टांगकर चल रहे थे और वे वाजपेयी जी के चेहरे के पास उस ऑक्सीजन को लगातार हवा में छोड़ने लगे. ऑक्सीजन छोड़ने से वाजपेयी जी को सांस लेने में आसानी हुई. सेना के अफसरों ने कहा कि आप घोड़े पर बैठ जाएं, लेकिन वाजपेयी जी ने घोड़े पर बैठने से मना कर दिया और वह पैदल ही जहां माउंटेनरिंग वार की ट्रेनिंग हो रही थी, वहां पहुंच गए.
उन दिनों उस माउंटेनरिंग वार की ट्रेनिंग लेने वालों में सेकेंड लेफ्टिनेंट सीबी सिंह भी थे, जो बाद में कैप्टन बने और बांग्लादेश की लड़ाई में जिन्होंने बहुत कमाल दिखाया. उस समय के सेकेंड लेफ्टिनेंट रैंक और उससे ऊपर के अफसरों को अटल बिहारी वाजपेयी की इस हिम्मत ने बहुत बड़ी ताकत दी, पर उनके मन में यह दु:ख रहा कि संसद से आए हुए संसदीय समिति के बाकी 19 सदस्य वे तकलीफें नहीं देख पाए. स़िर्फ अटल बिहारी वाजपेयी ने वे तकलीफें देंखी, जिन्हें सेना पहाड़ों पर लड़ते हुए झेलती है. उसके पास कपड़े नहीं होते, जूते नहीं होते, मोजे नहीं होते, हथियार नहीं होते. सब कुछ अपनी पीठ पर लादकर चलना पड़ता है और जरा-सी चूक हुई, तो गोली उनके सीने में लगती है. इससे सामना करने की ट्रेनिंग सेना अपने जांबाज सिपाहियों को दे रही थी और ये उन्नीस सदस्य बेस कैंप में बैठकर खाना-पीना कर रहे थे और उस विशेष गरम टेंट में आराम कर रहे थे. दिल्ली लौटकर सेना की उस ट्रेनिंग, सेना की तकलीफों का जो वर्णन अटल जी ने संसद में किया, उससे देश ने जाना कि जो खर्च हो रहा है, वह भी कम है.
आज अटल बिहारी वाजपेयी बीमार हैं. उनकी स्मृति का लोप हो रहा है, उन्हें बहुत सारी चीजें याद नहीं रहतीं. लेकिन, अटल बिहारी वाजपेयी की अपनी ज़िंदगी शानदार ज़िंदगी रही. अटल बिहारी वाजपेयी के साथी तो उनकी हिम्मत, उनकी मेहनत को लेकर किस्से सुनाते ही हैं, लेकिन बहुत सारे किस्से भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी ने भी मुझे सुनाए, जिनमें अटल बिहारी वाजपेयी की सोच, उनकी हिम्मत और देश को लेकर उनकी दृष्टि मेरे दिमाग में अंकित हो गई है.
सेना के इन अफसरों ने एक हफ्ते पहले जब अटल बिहारी वाजपेयी से जुड़ा हुआ माउंटेनरिंग वार देखने का यह किस्सा मुझे सुनाया, तो मेरे सामने वह दृश्य जीवित होकर चलने लगा और मैं कल्पना करने लगा कि कैसे अटल बिहारी वाजपेयी हिम्मत के साथ अपनी जान की बाजी लगाकर वहां गए, क्योंकि जहां ऑक्सीजन न हो, वहां सांस लेने का जोखिम उठाकर कोई सिविलियन जाए और ज़िंदा लौट आए, इसके लिए अगर हिम्मत चाहिए, तो अटल बिहारी वाजपेयी जैसी हिम्मत चाहिए. शायद इसीलिए अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री भी बने. अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन इसी हफ्ते में है. अटल जी को हम सब हृदय से जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हैं और ऐसी हिम्मत हर सांसद में आए, इसका इंतजार करते हैं.

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