asamबिहार चुनाव में पराजित होने के बाद भारतीय जनता पार्टी का हौसला पस्त हो चुका था. इसके बाद जिन पांच राज्यों में चुनाव होने थे, उनमें भारतीय जनता पार्टी की स्थिति चिंताजनक थी. ये ऐसे राज्य हैं जहां भाजपा की सरकार बनना तो दूर की बात थी, इन राज्यों में उसकी उपस्थिति भी नहीं थी. केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में पार्टी ने कभी कोई सीट नहीं जीती थी. पश्चिम बंगाल में बीजेपी की उपस्थिति तो है लेकिन वहां व किसी दूसरी पार्टी को चुनौती देने योग्य नहीं थी. असम में भी बीजेपी का वही हाल था लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों में पार्टी को यहां आशा की किरण नजर आई. राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली और बिहार में लगातार मिली शर्मनाक हार के बाद उसके लिए असम में जीत दर्ज करना जरूरी था. वहीं, कांग्रेस पार्टी 2014 के चुनाव के बाद लगातार चुनाव हार रही थी.

लोकसभा चुनाव के बाद जिन राज्यों में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी वहां लोगों ने उसे सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया. बिहार चुनाव में कांग्रेस लालू यादव और नीतीश कुमार के कंधों पर सवार होकर अच्छा प्रदर्शन करने में जरूर कामयाब हुई लेकिन वह असम और केरल में सरकार गंवाने का जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं थी. मतलब यह कि 2016 के विधानसभा चुनाव कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों के लिए महत्वपूर्ण थे. राजनीति में हार और जीत का फैसला सही फैसलों से ज्यादा गलत फैसलों से तय होता है यानी आपकी गलतियां ही नतीजे तय करती हैं. चुनावी रणनीति में जिस पार्टी से ज्यादा गलती होती है वह पार्टी हार जाती है और जो पार्टी गलतियां नहीं करती या कम गलतियां करती है वह चुनाव जीत जाती है. असम के चुनाव में भी यही हुआ है. कांग्रेस पार्टी ने सही फैसले लेने से ज्यादा गलतियां की हैं.

भाजपा ने बिहार चुनाव की गलतियां नहीं दोहराईं

चुनावी हार से जो पार्टी सबक लेती है वही पार्टी नई चुनौतियों का सामना करने में सफल हो सकती है. कांग्रेस पार्टी अपनी हार से सीखना नहीं चाहती लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने बिहार चुनाव में मिली हार से बहुत कुछ सीखा और उन सभी गलतियों को असम में सुधार लिया. पहला सबक जो भारतीय जनता पार्टी ने बिहार में सीखा वह यह था कि चुनावी रणनीति और प्रचार-प्रसार का काम दिल्ली से आए केंद्रीय नेताओं के हाथ में देने के बजाय स्थानीय (लोकल) नेताओं को दिया जाए. बिहार की तरह असम में दिल्ली से आए नेताओं का जत्था कैंपेन का संचालन नहीं कर रहा था. यहां के स्थानीय नेताओं ने ही चुनाव-प्रचार का संचालन किया. टिकट बंटवारे से लेकर पोलिंग एजेंट की नियुक्ति तक का फैसला असम के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं ने लिया. अपनी दूसरी गलती जो भारतीय जनता पार्टी ने सुधारी, वह यह कि चुनाव का चेहरा स्थानीय नेता ही हो.

यही वजह है कि असम में भारतीय जनता पार्टी ने  सर्बानंदा सोनोवाल और हेमंत बिस्वा सरमा को आगे किया. असम में बिहार की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तूफानी दौरा नहीं किया. यहां नोट करने वाली बात यह है कि चुनाव-प्रचार के दौरान सर्बानंदा सोनोवाल और हेमंत बिस्वा  सरमा ने असम के दूर-दराज के इलाकों में रैलियां कीं और उनमें प्रधानमंत्री की रैलियों से ज्यादा भीड़ उमड़ रही थी. तीसरी लेकिन भाजपा की सबसे महत्वपूर्ण रणनीति यह रही कि उसने बिहार की तरह असम में कोई महागठबंधन बनने की स्थिति पैदा नहीं होने दी. बल्कि इसके उलट भारतीय जनता पार्टी ने असम गण परिषद और बोडो पीपुल्स फ्रंट के साथ मिलकर एक अजेय गठबंधन बनाने में कामयाब रही. और भारतीय जनता पार्टी के लिए सबसे सुखद बात यह रही कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के वरिष्ठ नेताओं की तरफ से चुनाव के दौरान कोई अटपटा सा बयान नहीं आया.

चुनाव से पहले ज्यादातर विश्लेषक यह मान रहे थे कि भाजपा का प्रदर्शन अच्छा होगा लेकिन वह दो तिहाई सीट जीतकर सरकार बनाएगी यह किसी ने नहीं आंका था. भाजपा के रणनीतिकारों के लिए भी यह नतीजा हैरत करने वाला रहा होगा. इसकी वजह यह है कि असम में भारतीय जनता पार्टी की स्थिति अच्छी नहीं थी. 2011 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी 126 में से 120 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और सिर्फ 5 सीट ही जीत पाई थी. लेकिन असम में भारतीय जनता पार्टी का हौसला 2014 के लोकसभा चुनाव में बुलंद हुआ जब वह 14 में से 7 सीट जीतने में कामयाब रही. भारतीय जनता पार्टी को असम में दूसरी सफलता 2015 में हुए स्थानीय निकायों के चुनाव में मिली. दूसरी तरफ असम गण परिषद लगातार अपने विरोधाभास की वजह से असम की राजनीति के हाशिए पर जा चुकी थी.

पिछले कई चुनाव के नतीजे इस बात के गवाह हैं कि असम गण परिषद नेतृत्व और संगठन के तौर पर लोगों का विश्वास जीतने में विफल रही. 2014 का लोकसभा चुनाव भी पार्टी के लिए बड़ा झटका था. वह एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. मतलब यह कि असम में किसी तीसरी पार्टी के लिए स्पेस बन चुका था. जिसे भारतीय जनता पार्टी ने अब भर दिया. भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस पिछले दो दशक से पूर्वोत्तर में ज़मीनी स्तर पर बड़े पैमाने पर काम कर रही थी. जिसका फायदा अब चुनाव नतीजों में साफ दिखने लगा था. 2014 लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी न केवल असम में बल्कि पूरे पूर्वोत्तर भारत में सबसे ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब रही थी.

लोकसभा चुनाव की जीत से असम के स्थानीय भाजपा संगठन का हौसला तो बढ़ा था लेकिन उसे विधानसभा चुनाव में लोकसभा की तरह नतीजे आएंगे यह भरोसा नहीं था. भारतीय जनता पार्टी ने पहले स्थानीय स्तर पर संगठन को मजबूत किया और दूसरा युवाओं को पार्टी का चेहरा बनाया. भारतीय जनता पार्टी ने बिहार में मुख्यमंत्री का चेहरा न देकर गलती की थी. यह गलती बीजेपी ने असम में दोहराई. उन्होंने चुनाव से पहले सर्बानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया जिसका फायदा पार्टी को हुआ. इसके अलावा कांग्रेस को छोड़कर आए हेमंत बिस्वा सरमा से पार्टी को काफी फायदा हुआ.

सर्बानंद सोनोवाल और हेमंत बिस्वा युवा नेता हैं. दोनों ही ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के प्रभावी चेहरा रहे हैं जो असम में बाहरी यानि बांग्लादेशियों के खिलाफ आंदोलन करते आए हैं. सर्बानंद की छवि अच्छी है. इसके साथ ही उनकी गिनती एक अच्छे वक्ता में होती है. हेमंत बिस्वा सरमा की छवि एक चतुर रणनीतिकार की है. बिस्वा एक लोकप्रिय नेता हैं और कामयाब मिनिस्टर के रूप में भी जाने जाते हैं. इन दोनों की छवि धरती पुत्रों की है. भारतीय जनता पार्टी ने असम में युवा नेताओं को आगे बढ़ाया है. कामख्या ताशा और रामेश्वर तेली असम के युवा नेताओं में से हैं जो फिलहाल सांसद हैं. भारतीय जनता पार्टी की सफलता का श्रेय इन्ही युवा नेताओं को जाता है. जहां तक बात केंद्रीय नेतृत्व की है तो उनका योगदान बस इतना ही है कि उन्होंने इन युवा नेताओं को पार्टी के पुराने नेताओं की दखलंदाजी से दूर रखा.

कांग्रेस अपनी गलतियों से हारी

असम में वैसे तो कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व रहा है. कुछ समय को छोड़कर यहां कांग्रेस की ही सरकार रही है. तरुण गोगोई सबसे ज्यादा समय तक असम के मुख्यमंत्री बने रहे. वह 2001 से लगातार मुख्यमंत्री के पद पर रहे. तरुण गोगोई असम के ज़मीनी नेता हैं. उन्होंने कांग्रेस को 15 साल तक सफलतापूर्वक असम की सबसे बड़ी पार्टी बनाए रखा. लेकिन, उन्हें सबसे बड़ा झटका 2014 के लोकसभा चुनाव में लगा, जब कांग्रेस पार्टी 14 में से सिर्फ 3 सीट जीत सकी. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 15 साल के शासन की वजह से सत्ता विरोधी लहर का सामना करना था.

इस बीच पार्टी में विद्रोह भी हुआ जब हेमंता विस्वा सरमा के साथ कई नेताओं ने पार्टी छोड़ दी. हकीकत यह है कि इन सब के बावजूद कांग्रेस अपने सगंठन, अच्छी रणनीति और मुस्लिम वोट के सहारे चुनाव जीत सकती थी. लेकिन, कांग्रेस ने एक भी ऐसा फैसला नहीं किया जिससे उन्हें जीत मिल सके. इसके उलट, उसने वह सारे काम किए जो पार्टी की हार  सुनिश्चित कर रहे थे. कांग्रेस ने बिहार चुनाव के नतीजे से कोई सीख नहीं ली. जिस तरह बिहार में कांग्रेस ने लालू यादव और नीतीश कुमार के साथ मिलकर एक महागठबंधन बनाकर सेकुलर वोट को बंटने से रोका था यदि यही फार्मूला असम में भी अपनाया गया होता तो वह भाजपा को चुनौती देने में सफल हो सकती थी. लेकिन, कांग्रेस ने असम में ऐसा नहीं किया. दूसरी तरफ, परिवारवाद और बांग्लादेशियों को पनाह देने वाली पार्टी के रूप में उभरी छवि से उसे सबसे ज्यादा नुकसान हुआ.

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का तर्क ग़लत है

असम में जम्मू-कश्मीर के बाद सबसे ज्यादा मस्लिम जनसंख्या है. यहां 34 फीसदी मुस्लिम आबादी है. कई विश्लेषकों की राय यह है कि असम में बीजेपी की जीत सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की वजह से हुई है. वे चुनाव के बाद हुए सर्वे के आधार पर यह दलील देते हैं कि चूंकि 60-65 फीसदी हिंदुओं ने भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया इसलिए असम में धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण हुआ है. लेकिन यह सच्चाई नहीं है. असम के नतीजों का धार्मिक आधार पर विश्लेषण करना न तो तर्कसंगत है और न ही उचित है.

फिर ऐसे विश्लेषकों को यह भी बताना चाहिए कि जब असम में भाजपा नहीं थी, तब कांग्रेस को हिंदुओं के जो वोट मिलते थे क्या वह धर्म के आधार पर मिलते थे? अगर असम में सांप्रदायिक-ध्रुवीकरण हुआ तो इन विश्लेषकों को यह बताना चाहिए कि यह कैसे संभव है कि 49 मुस्लिम बाहुल्य  विधानसभा सीटों में से 15 सीटें भारतीय जनता पार्टी जीत गई. विश्लेषकों की थ्योरी और अखबारों के सर्वे से अलग चुनावी नतीजों के सूक्ष्म परीक्षण से यह साफ जाहिर होता है कि मुसलमानों ने किसी एक पार्टी के लिए सामूहिक रूप से वोट नहीं किया. यही वजह है कि इन 49 सीटों में बीजेपी को 15, कांग्रेस को 14, एयूडीएफ को 12, असम गण परिषद को 5 और बोडो पीपुल्स फ्रंट को 2 सीटों पर जीत मिली है.

हिंदू बनाम मुस्लिम नहीं यह पहचान की लड़ाई है

आईडेंटिटी पॉलिटिक्स यानि पहचान की लड़ाई की सार्थकता पर बहस हो सकती है. यह सही है या गलत इस पर तर्क दिए जा सकते हैं लेकिन इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि असम विधानसभा चुनाव का मुख्य मुद्दा पहचान ही था. असमिया, बोडो, दिमसा और बंगालियों की पहचान के साथ ही बाहरी-बांग्लादेशी का मुद्दा असम के चुनाव में मुख्य रहा. चुनाव से पहले आए सभी सर्वे में70-75 फीसदी लोगों ने बंग्लादेशी घुसपैठ को चुनाव का  सबसे अहम मुद्दा बताया था. असम में यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि असम में एथनिक ग्रुप्स (जनजातीय समूह) का महत्व रहा है.

असम में आधुनिक विचार और मान्यताओं की मौजूदगी के बावजूद पहचान का सवाल सबसे अहम बना हुआ है. असम के लोगों को लगता है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों की वजह से यहां आबादी का संतुलन बदल रहा है. यही वजह है कि असम की राजनीति के केंद्र में अवैध रूप से पलायन हुए बांग्लादेशियों का मुद्दा है. इसके खिलाफ कई दशकों से असम में आंदोलन चल रहा है. इन्हीं आंदोलनों से असम में संगठनों और नेताओं की नई खेप पैदा हुई है.

असम में इसी वजह से पहचान की लड़ाई कमजोर होने के बजाए मजबूत हुई है. चुनाव प्रचार के दौरान दिए गए भाषणों और नेताओं के बयानों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी असम विधानसभा चुनाव कोस्वदेशी बनाम बाहरी बनाने में कामयाब रही. असम के चुनाव का एजेंडा भारतीय जनता पार्टी ने तय किया. चुनाव प्रचार की दिशा और दशा भी भारतीय जनता पार्टी की रणनीति के मुताबिक तय हुई. यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी की असम में ऐतिहासिक जीत हुई.

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