पांच सितंबर 66 को मध्य प्रदेश के विदिशा जिले के एक गांव कांकर मेरा जन्म हुआ था।पिताजी शिक्षक और कवि थे तो वातावरण मिला।पांचवी कक्षा तक गांव में पढ़ाई की।फिर नाना के घर अशोकनगर शहर में कक्षा 6 से 8 की पढ़ाई की।गाँव में एक नदी थी,हमारे ही खेत खलिहान भी थे।पशुधन भी था ।गंवई दोस्तों के साथ खेलना अच्छा लगता था,उनमें दलित,पिछड़े भी होते थे मगर हम बच्चों में भेद नहीं होता था।
कविता लिखना बचपन में शुरू नहीं हुआ था.मगर विचारों में खो जाने की बीमारी बचपन में भी थी।जब कोई कविता पढ़ता था तो जरूर लगता था कि ये सोचने के ऊंचाई पर चढ़ कर ही लिखी जा सकती है और मैं भी ऐसा लिख सकता हूँ।मुझे विज्ञान गणित चुनना पड़ा,मुझे अंग्रेजी भाषा बहुत प्रियकर थी।

पहली कविता भूकंप से भूवेदना तब छपी जब मैं गणित से एम. एस. सी कर रहा था।इसमें एक गहन विचार आया था।फिर धीरे धीरे मुझे लगा कि मैं गहन लिखकर ही चैन से जी सकूंगा।मुझे अखबार के रविवारीय में आने वाली महाछंदीय कविताएं पता नहीं क्यों अच्छी नहीं लगतीं थीं।जबकि शमशेर बहादुर सिंह,भगवत रावत,अशोक वाजपेयी ,राजकमल चौधरी,के अलावा,शिवमंगल सिंह सुमन,शलभ श्री राम सिंह आदि की कविताएं समझ में आतीं थीं।मेरी आकांक्षा होती कि मैं ऐसा ही लिखूं।घर में ज्येष्ठ भ्राता था तो पहले मुझे कमाऊ बनना था।फिर भी भोपाल में निजी स्कूलों में नौकरी करते हुए कवियों जैसे स्वभाव के लिए बदनाम था।तभी आकाशवाणी भोपाल से जुड़ा,भास्कर,जागरण ,में कविता और व्यंग्य छपे।सरकारी नौकरी लगने पर नौकरी लगने की खुशी के साथ यह खुशी भी थी कि अब लिखेंगे पढ़ेंगे।तब से मैंने कविता की पगडंडी पकड़ी और चल पड़ा था एक बिना मंजिल के गांव की तरफ। तभी विदिशा के कवियों के बीच उठने बैठने इरशाद और वाह वाह करने का तमीज़ सीखा।कुछ गीत ग़ज़ल भी लिखे कहे।शादी के तुरंत बाद यहां रहते कवि शलभ श्रीराम सिंह,नरेन्द्र जैन,से बातें मुलाकातें होने लगीं।तभी अपनी कामना को एक पक्का ठिकाना सा मिला।बिखरी बिखरी विचार राशि को एक कविता के तागे में पिरोने का हुनर सीखने में संतोष आनंद आने लगा।लघु पत्रिकाओं के और संपादकों के साथ मुख्य धारा के कवि लेखकों के किस्से,और नाम ,पते,और गोत्र अपनी डायरी में दर्ज करने लगा।चार पांच साल में ही मुझे अच्छी और चर्चित साहित्यक पत्रिकाओं में छपन सुख मिलने लगा।घर में पुस्तकें बढ़ने लगीं,गद्य पद्य पढ़ने लगा,एक टेबुल नियत हो गई।सफेद पन्ने और काली स्याही का पेन न मिले तो सिगरेट की तलब जैसी लगती।पहला संग्रह तमाम गुमी हुई चीज़े आया जिसमें स्मृतियों को अभावुक तरह से लिखी कविताएं भी थीं,प्रतिबद्धता की और संबंधो में अचानक से आती असंबद्धता की विडंबना से उपजी कविताएं भी थीं।दूसरे संग्रह घर के भीतर घर की कविताओं में वैसा ही अवसाद,निजदुख और बुझी बुझी सी आग थी जैसी किसी त्रास झेलते मनुष्य के जीवन में होती है।दर असल हर कविता संग्रह हमारे एक अंतराल के संघर्षों का दस्ता होता है सो बाद के संग्रह ऐसे दिन का इंतज़ारऔर आशाघोष में इन अंतरालों की भोगी हुई ध्वनियां अपने धीमे स्वर में गूंज रही थीं।

मैं निसंदेह प्रगतिशील कवियों से एक तरफा प्रेम करता हूँ।एक अभावुक कवि कुल में इस तरह शामिल हूँ,जहाँ प्रोत्साहन के और संगसाथ के हाथ नहीं हैं।लिखने की धार फिर भी टूटती नहीं तो ज़रूर यह मेरी आंतरिक विवशता है।। ग़ालिब के ख़याल -रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन में -भरोसा हो गया है।कवि नरेन्द्र जैन ने कहा था कवि होना एक यातना से भी गुजरना होता है।कभी कभी ऐसी बातें सही लगतीं हैं।वहीं वर्डस्वर्थ का कहा कि

“Poetry is the spontaneous overflowof powerful feelings: it takes its origin from emotion recollected in tranquility.”भी यथोचित प्रतीत होता है।

कविताओं की आमद वैसे कोई वजहे जश्न नहीं हो सकती,गोया उनकी अंतर्वस्तु लहरों की तरह दूर से आती हुई भी एक नजदीकी उछाल लगती है,यह लोगों को उत्सव के शोर जैसी लग सकती है,उन्हें जो समंदर किनारे एक रोमांच देखने के लिए ही आए होते हैं,जो समंदर को समझना चाहते हैं,वे तो उसके उस उद्दाम में भी नियति का खेल समझ संवेदित हो जाते हैं।मुझे कवि होना कभी गौरव का या गाल बजाऊ शगल नहीं लगता लेकिन यह कवि होना छिप भी नहीं सकता।सो अब जैसा भी हूंँ,।कविताओं को लिए आपके साथ हूँ ।पाठकों की अदालत में इन बयानों को लेकर आने से अब बचने से भी क्या फायदा,जो मुझसे जाने अनजाने में कलम से निकल ही गए हैं।
पाठकों के जो भी वर्डिक्ट होंगे।उन्हें अब मैं सुनने के लिए तैयार हूँ।पर ध्यान रहे पाठकों के।आखिर वे मेरे वास्तविक मित्र हैं।कवि और आलोचक तो मेरे जैसे ही उद्देश्य में राहगीर हैं,उनके तो राय मशविरों के निहितार्थ अलग होते हैं।

कविता मेरे लिए क्या नहीं है….

कविता लिखना मन की बात कहने का ज़रिया है, एक उपाय भी है तनाव को प्रबंधित करने का. सुंदरता को महसूस करने के लिए एक रग है, ।कुदरत के कामों पर खुद को ही चकित कराने की वजह है,। संवेग को तरीके से धारण करने का साधन है,।अपने मानसिक अनुकूलन के लिए ज़रूरी है मेरी कविता। दरअसल तो वह मुझसे झिलमिल तारे की तरह जुड़ी है। जो लगने में कभी बिलकुल सगी तो कभी बिल्कुल निस्पृह. ।कभी अपनी मुस्कान से साथ होने का भरोसा देती हुई,और कभी मेरी तरफ पीठ किये बैठी हुई।कविता मुझे, अपनी पीठ पर बैठाकर तेजी से उड़ती हुई एक चिड़िया है जिस पर मैं नन्ही जान की तरह डरता, और रोमांचित होता रहता हूँ.

ब्रज श्रीवास्तव.

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