Untitled-1अब अमेरिका के राजनितिक हलकों में भी दक्षिण एशियाई मूल के लोगों, खासकर मुसलमानों, हिन्दुओं, सिखों और अरब देशों के लोगों के प्रति घृणा की भावना की चाप सुनाई देने लगी है. हाल ही में साउथ एशियन अमेरिकन्स लीडिंग टूगेदर (साल्ट) संस्था ने एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसके मुताबिक इस समुदाय के लोग नफरत भरे माहौल में जीने पर मजबूर हैं. अंडर सस्पिशन, अंडर अटैक के नाम से प्रकाशित इस रिपोर्ट में साल्ट ने जनवरी 2011 से मार्च 2014 तक अमेरिका की राजनितिक हस्तियों और सरकारी अधिकारियों द्वारा नफरत भरी बयानबाज़ी और शाब्दिक आलोचना और अन्य घृणा अपराध की वारदातों को संकलित किया है. वैसे तो अमेरिका और दूसरे यूरोपीय देशों में न्यूयॉर्क ट्रेड टावर पर 11 सितम्बर 2001 के आतंकवादी हमले के बाद से ही दक्षिण एशियाई मूल के लोगों के खिलाफ घृणा अपराध की वारदातें शुरू हो गईं थीं. लेकिन समय-समय पर इस में कमी-बेशी होती रहती. साल्ट के मुताबिक पिछले 3 वर्षों में ऐसी वारदातों में वृद्धि हुई है. इस बात की पुष्टि खुद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने हालिया संबोधन में भी की है.
बहरहाल, साल्ट ने यह रिपोर्ट 2011 से 2014 के दरम्यान अख़बारों में छपी उन ख़बरों के आधार पर तैयार की है जो नफरत के माहौल और राजनीतिक बयानबाज़ी पर आधारित थीं. साल्ट की 2010 की रिपोर्ट के मुकाबले में घृणा भरी राजनीतिक टिप्पणियों में सालाना 40 फीसदी की वृद्धि देखी गई. इस दौरान पूरे अमेरिका में ऐसी 157 घटनाएं समाचार की सुर्ख़ियों में आईं. इनमें 78 मामले राजनीतिक बयानबाज़ी से संबंधित थे जबकि 76 मामले हिंसात्मक थे. इनमें से 90 फीसद राजनीतिक मामलों और 80 फीसद अपराधिक मामलों का संबंध मुस्लिम विरोध से था. ज़ाहिर है ऐसी वारदातों की वजह से इस समुदाय के लोगों की मानसिकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. साल्ट की रिपोर्ट में शामिल यह घटनाएं न्यूयॉर्क, न्यूजर्सी, शिकागो और इसके आसपास के क्षेत्र तथा दक्षिणी और उत्तरी कैलिफोर्निया से संबंधित हैं.
साल्ट की यह रिपोर्ट उस सच्चाई से पर्दा उठाती है कि हालिया कुछ वर्षों में अमेरिका और यूरोपीय देशों में मुसलमानों के खिलाफ खास तौर पर और दूसरे दक्षिण एशिया के समुदायों के खिलाफ आम तौर पर हिंसा की वारदातों में इजाफा हुआ है (देखें चौथी दुनिया का पिछला अंक). मिसाल के तौर पर पिछले दो महीने में न्यूयॉर्क शहर में नस्ली नफरत के तीन बड़े मामले सामने आये. न्यूयॉर्क वो शहर है जहां अलग-अलग जातीय और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले सबसे ज्यादा लोग रहते हैं. दी गार्जियन अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रुकलिन में एक मुस्लिम महिला का पीछा कर उसका सिर कलम कर देने की धमकी दी गई, इसी महीने एक अमेरिकी सिख पर कुछ शरारती लोगों ने हमला किया और उसे ओसामा आतंकवादी कह कर फब्तियां कसीं. एक दूसरी घटना में एक सिख व्यक्ति को ट्रक से कुचल दिया गया.
अब सवाल यह उठता है कि क्या ये घटनाएं सिर्फ इसलिए हो रहीं हैं कि दक्षिण एशिया के लोग एक जैसे दिखते हैं? या इसकी कोई और वजह है क्योंकि अमेरिका में बसे सिख समुदाय के लोगों ने पहले भी इस बात को साफ़ किया था कि सिख मज़हब एक अलग मज़हब है. इसका इस्लाम से कुछ लेना देना नहीं. कम से कम एक पढ़ा लिखा अमेरिकी एक मुसलमान और सिख के दरम्यान के फर्क को ज़रूर समझता है. अलबत्ता न्यूयॉर्क की मुस्लिम महिला के सिर कलम कर देने की धमकी की बात को आईएसआईएस की हालिया खुनी खेल से जोड़ कर देखा जा सकता है. साथ में यह सवाल भी उठता है कि अमेरिका जो अभिव्यक्ति कि आज़ादी, लोकतंत्र, मल्टी-कल्चरलिज़म का सब से बड़ा पक्षधर है (और अमेरिकी संविधान भी अपने नागरिकों को ये अधिकार देता है) क्या अपने देश के अल्पसंख्यकों की हितों की अनदेखी करता रहेगा? यह बात और भी गंभीर इसलिए भी हो जाती है क्योंकि अब तक इन मामलों की प्रकृति अपराधिक होती थी लेकिन अब यह कयास लगाया जा रहा है कि इससे शीघ्र ही चुनावी मुद्दा भी बनाया जा सकता है.
अमेरिका में अगर जातीय हिंसा के आंकड़ों पर नज़र डाली जाए तो अक्सर यह देखा गया है की किसी बड़ी आतंकवादी घटना के बाद ऐसी जातीय हिंसा की वारदातें बढ़ जाती हैं. मुस्लिम विरोध के मामलों में 9/11 की घटना के बाद ज़बरदस्त वृद्धि हुई थी. इस साल एफबीआई ने मुस्लिम विरोधी जातीय हिंसा के 481 मामले दर्ज किए थे, जो एक साल पहले के मुकाबले 1600 फीसद ज्यादा थे. साल्ट की 2014 की रिपोर्ट में इस तरह की हिंसा में हुई वृद्धि की एक बड़ी वजह आईएसआईएस की हालिया गतिविधियां थीं. लेकिन ऐसी हिंसा की वजह सिर्फ आतंकवादी घटनाएं हों ऐसा नहीं है क्योंकि अमेरिकी पादरी टेरी जोंस द्वारा 2010 कुरान जलाने की धमकी के बाद मुस्लिम विरोधी हिंसा के मामलों में 50 फीसदी तक की वृद्धि दर्ज की गई थी. अमेरिका में मुसलमानों के प्रति नकारात्मक सोच में वृद्धि की बात को अरब-अमेरिकन इंस्टीट्यूट की हालिया रिपोर्ट भी तस्लीम करती है. हालांकि यह भी सच्चाई है कि अमेरिका में मुसलमानों के प्रति हिंसा का रवैया नया नहीं है 30 साल पहले जब ईरान में अमेरिकियों को बंधक बनाया गया था उस समय भी मुसलमानों के खिलाफ हिंसात्मक प्रतिक्रिया हुई थी.
दक्षिण एशिया के लोगों के प्रति ब़ढती हुई नकारात्मक सोच और हिंसा के पीछे एक और हकीकत है जिसका ज़िक्र साल्ट की हालिया रिपोर्ट में किया गया है. इस रिपोर्ट में नेड रेस्निकोफ के हवाले से कहा गया है कि एशियन समुदाय अमेरिका में सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला ग्रुप है. साथ ही इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अगर आबादी में वृद्धि का यही रुझान रहा तो अगले 30 साल में सफ़ेद फाम लोगों की संख्या बाकी के लोगों से कम रह जाएगी. कहनी न कहीं यह हकीक़त भी दक्षिण एशियाई लोगों के खिलाफ होने वाली जातीय प्रकृति के हमलों के पीछे है. मीडिया रिपोर्टिंग भी ऐसे हमलों में आग में घी का काम करती हैं.
बहरहाल, ऐसी वारदातें न तो अमेरिका जैसे बहुसांस्कृतिक देश, जहां का सविधान अपने नागरिकों को सामान अधिकार देता है वहीं अभिव्यक्ति की भी आज़ादी देता है, के लिए ठीक हैं और न ही एशियाई मूल के लोगों के लिए. अगर अमेरिका में इस तरह के जातीय हमले जारी रहे तो ज़ाहिर है यह उसके बुनियादी वसूलों के विपरीत होगा. वहीं एशियाई मूल के लोगों को भी कुछ पहल करनी चाहिए और दूसरी संस्कृतियों से बेहतर ताल मेल बनाने के लिए डायलाग शुरू करना चाहिए. ऐसे में राष्ट्रपति बराक ओबामा का यह बयान सराहनीय है कि एशियाई अमेरिकी और प्रशांत
द्वीपवासी समुदाय की विविधताओं और विशिष्ट संस्कृतियों से भी अमेरिकी राष्ट्रीय जीवन का निर्माण होता है.

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