डॉ. वेदप्रताप वैदिक

स्वामी अग्निवेश अब से 53-54 साल पहले जब कलकत्ता से दिल्ली आए तो रेल से उतरते ही वे मेरे पास दिल्ली के बाराखंबा रोड पर सप्रू हाउस में आ गए। मैं छात्रावास संघ का अध्यक्ष भी था। उन दिनों मेरे पीएच.डी. को लेकर संसद बार-बार ठप्प हो रही थी और सारे अखबारों में उसकी चर्चा मुखपृष्ठों पर छपती रहती थी।

उस समय अग्निवेशजी का नाम वेपा श्यामराव था और वे सफेद झक लुंगी और कुर्ता पहने हुए ब्रह्मचारी वेश में थे। उस दिन से कल तक उनसे मेरी घनिष्टता सतत बनी रही। उनका कहना था कि मैं महर्षि दयानंद का भक्त हूं और आप भी हैं तो हम दोनों मिलकर इस भारत देश का नक्शा ही क्यों नहीं बदल दें ? कलकत्ता में वे पं. रमाकांत उपाध्याय के संपर्क में आए और आर्यसमाजी बन गए लेकिन वे इतने स्वायत्त और स्वतंत्रचेता थे कि देश के ज्यादातर आर्यसमाजी लोग उन्हें आर्यसमाजी ही नहीं मानते। असलियत तो यह है कि वे अपने जीवन में आर्यसमाज की सीमाएं भी लांघ गए थे।

आर्यसमाज की परंपरागत विधि के पार जाकर वे मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों को भी दयानंद से जोड़ना चाहते थे। उनके कई विचारों और कार्यों से मेरी घोर असहमति बनी रहती थी लेकिन फिर भी उन्होंने मुझसे कभी संपर्क नहीं तोड़ा। उन्होंने अभी सात-आठ महिने पहले एक विश्व आर्यसमाज स्थापित करने का संकल्प किया था, जिसमें वे सभी धर्मों के लोगों को जोड़ना चाहते थे। वह सम्मेलन दिल्ली में मेरी अध्यक्षता में बुलाया गया था। मैंने इस धारणा को सर्वथा अव्यवहारिक बताया।

इसी प्रकार 1970 में शक्तिनगर आर्यसमाज में आर्यसभा (राजनीतिक दल) बनाने का जब प्रस्ताव आया तो मेरी राय थी कि संन्यासियों को राजनीति के कीचड़ में बिल्कुल नहीं धंसना चाहिए। मैं उन्हीं दिनों न्यूयार्क की कोलंबिया युनिवर्सिटी में शोध-कार्य कर रहा था। अग्निवेशजी ने तार भेजकर मुझे जल्दी वापिस भारत आने का आग्रह किया और कहा कि आप, मैं और इंद्रवेशजी साथ-साथ संन्यास लेंगे। संन्यास लेते ही ये दोनों मित्र हरयाणा की राजनीति में जुट पड़े। अग्निवेशजी 1977 में विधायक चुने गए। मैंने राजनारायणी और चौधरी चरणसिंहजी से अनुरोध करके चौधरी देवीलालजी के साथ उन्हें हरयाणा में मंत्री बनवाया। मंत्रिपद से उन्होंने जल्दी ही इस्तीफा दे दिया लेकिन उसके बाद वे सामाजिक आंदोलनों में पूरी तरह से जुट गए। उन्होंने सती-प्रथा, बाल-मजदूरी, अंग्रेजी के वर्चस्व, मूर्ति-पूजा, पाखंड और भ्रष्टाचार आदि के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किए।

उनके- जैसे सतत आंदोलनकारी संन्यासी भारत में बहुत कम हुए हैं। वे महर्षि दयानंद, स्वामी सहजानंद, सोहम स्वामी, बाबा रामचंद्र और संन्यासी भवानी दयाल की परंपरा के संन्यासी थे। आजकल के राजनीतिक दलों के संन्यासियों से वे अलग थे। झारखंड के पाकुर में उन पर जानलेवा हमला नहीं होता तो वे शायद शतायु हो जाते, क्योंकि वे सर्वथा सदाचारी, शाकाहारी, यम-नियम का पालन करनेवाले साहसिक व्यक्ति थे। इसीलिए 81 वर्ष की आयु में भी उनके निधन को मैं असामयिक कहता हूं। उनका महाप्रयाण देश की क्षति तो है ही, मेरी गहरी व्यक्तिगत क्षति भी है। अग्निवेशजी की माताजी कहा करती थीं कि ‘श्याम आपसे उम्र में कुछ बड़ा है लेकिन यह सिर्फ आपकी बात सुनता है।’’

अब उसे कौन सुनेगा ?

मेरे अभिन्न मित्र को || हार्दिक श्रद्धांजलि ||

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