हिंदू आतंकवाद, मुस्लिम आतंकवाद, संघ परिवार का आतंकवाद यह तीनों ही शब्द स्वामी असीमानंद के अपराध स्वीकारने के बाद से लगातार सुनने में आ रहे हैं. एक अख़बार ने शीर्षक लगाया, असीमानंद के अपराध स्वीकारने से इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम करने वालों का मुंह काला. दूसरा अख़बार शीर्षक लगाता है, यह हिंदू दहशतगर्दी नहीं, संघ परिवार की दहशतगर्दी है. एक अख़बार लिखता है, स्वामी असीमानंद का इक़बालिया बयान और दहशतगर्दी का चेहरा बेनक़ाब. यानी जितने अख़बार, उतने शीर्षक. स्वामी असीमानंद की संलिप्तता विभिन्न बम धमाकों में साबित होने के बाद महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम सोचें कि यह हिंदू आतंकवाद है या मुस्लिम, बल्कि यह सोचना है कि आतंकवादी न हिंदू हैं, न मुस्लिम. वे मानवता के दुश्मन हैं, जिनकी कारगुज़ारियों से न केवल देश और समाज को क्षति होती है, बल्कि घर के घर तबाह हो जाते हैं, मासूम बच्चे अनाथ हो जाते हैं और महिलाएं विधवा हो जाती हैं. महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि कौन पकड़ा गया, महत्वपूर्ण बात यह है कि जो पकड़ा गया, वह मासूम और बेगुनाह तो नहीं है. इसलिए आज जरूरत है कि उन मुस्लिम नौजवानों, जिन्हें मक्का मस्जिद, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस और अजमेर शरीफ़ दरगाह में धमाकों के बाद पकड़ कर बंद कर दिया गया, का भविष्य बचाया जाए और तारीख़ पर तारीख़ वाली परंपरा को ख़त्म करके तत्काल उनकी रिहाई का इंतजाम हो. मुंबई में जिस तरह लगभग 50 मुस्लिम संगठनों ने रैली निकाली और वहां के ऐतिहासिक आज़ाद मैदान में हज़ारों की संख्या में मुसलमानों ने एकत्र होकर प्रदर्शन किया, वह एक अच्छी कोशिश है.

मुस्लिम संगठनों और रहनुमाओं को चाहिए कि वे भड़काऊ बयान देने से बचें और मुस्लिम नौजवानों को हौसला दें, क्योंकि लंबे समय से उनमें अनिश्चितता की भावना पैदा हो गई है. वह दाढ़ी रखने से परहेज़ करने लगे हैं. घर से अगर कोई नौजवान पठानी सूट या इस्लामी शरीयत का कुर्ता-पायजामा पहन कर निकलने लगता है तो माता-पिता उसे फ़ौरन कपड़े बदलने पर मजबूर कर देते हैं. पुलिस और सुरक्षागार्डों का स्वभाव सा बन गया है कि वे मुस्लिम नौजवानों को देखते ही रोक लेते हैं और फिर तलाशी के नाम पर उन्हें अपमानित करते हैं. अल्पसंख्यकों को चारों तरफ़ से अपमानित किया जाता है और उन पर बेबुनियाद आरोप लगाकर उन्हें जेलों में डाल दिया जाता है.

जमीअत उलेमा-ए-हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी और अबू आसिम आज़मी आदि ने भी इन मुस्लिम नौजवानों को रिहा करने की मांग की है. यहां अहम बात यह भी है कि असीमानंद के इक़बालिया बयान और अपराध स्वीकारने के बाद इन नौजवानों की रिहाई का इंतज़ाम क्यों नहीं किया जा रहा? इस मामले में सरकार को आरोपियों को रिहा किए जाने के लिए अदालत में याचिका डालनी चाहिए. मुस्लिम संगठनों और रहनुमाओं को चाहिए कि वे भड़काऊ बयान देने से बचें और मुस्लिम नौजवानों को हौसला दें, क्योंकि लंबे समय से उनमें अनिश्चितता की भावना पैदा हो गई है. वह दाढ़ी रखने से परहेज़ करने लगे हैं. घर से अगर कोई नौजवान पठानी सूट या इस्लामी शरीयत का कुर्ता-पायजामा पहन कर निकलने लगता है तो माता-पिता उसे फ़ौरन कपड़े बदलने पर मजबूर कर देते हैं.
इसकी वजह यही है कि पुलिस और सुरक्षागार्डों का स्वभाव सा बन गया है कि वे मुस्लिम नौजवानों को देखते ही रोक लेते हैं और फिर तलाशी के नाम पर उन्हें अपमानित करते हैं. अल्पसंख्यकों को चारों तरफ़ से अपमानित किया जाता है और उन पर बेबुनियाद आरोप लगाकर उन्हें जेलों में डाल दिया जाता है. यह शायद 20 फ़रवरी, 1998 की बात है, एक मुस्लिम नौजवान मोहम्मद आमिर ख़ान अपने घर से इशा की नमाज़ पढ़कर निकल रहा था, उसे पुरानी दिल्ली के इलाक़े से पुलिस ने उठा लिया और उस पर 1996-97 के कई धमाकों का आरोप लगाकर जेल में बंद कर दिया. 1998 से 2006 तक वह तिहाड़ जेल में रहा और जब 2006 में उसे बेगुनाह क़रार देकर छोड़ दिया जाना था, तब उससे कहा गया कि उसे फ्रंटियर मेल धमाके में उत्तर प्रदेश पुलिस ने आरोपी क़रार दिया है, जो 10 जनवरी, 1991 को हुआ था. यह सब सुनकर और पढ़कर बिल्कुल ऐसा लगा रहा है, जैसे पुलिस इंतजार कर रही हो कि कब कोई ऐसा लड़का मिले, जिसका कोई न हो और जो अपने बचाव का इंतज़ाम न कर सके तथा उसे किसी न किसी तरह फंसा लिया जाए. पाठकों को याद होगा कि 19 जून, 2001 को ग़ाज़ियाबाद की डासना जेल में शकील नामक एक नौजवान की लाश मिली थी, जिसे 1996 में फ्रंटियर मेल धमाके का मुजरिम क़रार देकर जेल में डाल दिया गया था. उसकी लाश उसके सेल में पंखे से लटकी हुई पाई गई, जबकि उसे ज़हर देकर मारा गया था. इसी तरह हैदराबाद का 22 वर्षीय मुस्लिम नौजवान मोहतशिम बिलाल जो इंजीनियर था, को 5 मार्च, 2008 को गिरफ्तार किया गया था.
ये तो चंद नाम हैं, मगर इसी तरह न जाने कितने नौजवान हैं, जिन्हें हैदराबाद, आज़मगढ़, दिल्ली और दूसरे शहरों से बिना वजह पकड़ कर जेलों में बंद कर दिया गया. क्या इन नौजवानों के घर, परिवार और उनसे जुड़े लोगों की मानसिक स्थिति का अंदाज़ा कोई लगा सकता है कि जिनके बच्चे को आतंकवादी कहकर जेल में डाल दिया जाए और कोई सुनवाई न हो. इसी तरह सुनील जोशी की हत्या के बाद देवासी में रशीद शाह की 2007 में घर में घुसकर हत्या कर दी गई. जब उनका बेटा जलील उन्हें बचाने आया तो उसे भी जिंदा जला दिया गया, दूसरे भाई के पैर में गोली मार दी. जब दंगाई एक मासूम बच्ची को जलाकर मारने की कोशिश कर रहे थे तो उसके पिता ने बड़ी मुश्किल से उसे बचा तो लिया, मगर ख़ुद मानसिक संतुलन खो बैठा. लतीफ़ शाह, जो इस परिवार में बचने वाला बदनसीब व्यक्ति है, का कहना है कि न तो हम सुनील जोशी को जानते थे और न उससे हमारा कोई संबंध था, मगर दंगाइयों ने निर्ममता से मेरे पूरे घर को ख़त्म कर दिया और उसके बाद कोई सुनवाई नहीं हुई और अभी भी हमें डरा- धमका कर रखा जाता है. लतीफ़ शाह का कहना है कि कोई वक़ील हमारी पैरवी करने के लिए तैयार नहीं था. अब हमारी लड़ाई लड़ने के लिए वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ मल्कार आगे आए हैं. ये सब तो वे मशहूर मामले हैं, जो सामने आ गए, मगर जिन ग़रीब लड़कों को सड़क से पकड़ लिया गया, जिनके माता-पिता ग़रीब हैं और समाज के भय से कोई क़दम नहीं उठाते, उनकी सुनने वाला कोई नहीं है.
अब्दुल कलीम नामक 21 वर्षीय नौजवान, जो असीमानंद के अपराध स्वीकारने से काफ़ी मशहूर हुआ है, उसे भी पहले कोई नहीं जानता था. यह ग़रीब नौजवान 2007 में मक्का मस्जिद धमाके में पकड़ा गया था, मगर जैसा उसका कहना है कि उसके अच्छे चरित्र ने असीमानंद को अपराध स्वीकारने पर विवश कर दिया, बहुत आश्चर्यजनक लगता है, क्योंकि जिस व्यक्ति ने इतने बड़े-बड़े धमाके किए हों और कुख्यात गिरोह का हिस्सा हो, वह एक नौजवान की बातों में आकर अपराध स्वीकार कर ले, यह बात कुछ पचती नहीं है और अतार्किक लगती है. कई बार ऐसा लगता है कि इसके पीछे कोई षड्‌यंत्र या कोई सोची-समझी योजना तो नहीं है. जो भी है, यह बात समझ लेनी चाहिए कि जिन मुस्लिम नौजवानों को स़िर्फ शक़ की बुनियाद पर अपराधी बनाकर जेलों में बंद कर दिया गया है, हम सबको मिलकर उनकी रिहाई की कोशिश करनी चाहिए, ताकि उनका भविष्य ख़राब होने से बच जाए.

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