protestपंजाब की हरित क्रांति में दलितों का अभूतपूर्व योगदान रहा है, लेकिन उससे मिलने वाले लाभों से ये समुदाय आज भी वंचित है. जनसंख्या में इनकी हिस्सेदारी जहां 3 फीसदी है, वहीं पंजाब की मात्र 1.5 फीसदी जमीन पर ही उनका मालिकाना हक है.

भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जुलाई 2013 में राष्ट्रीय आवासीय भूमि अधिकार बिल 2013 स्वीकृत किया गया, किन्तु संसद में प्रस्तुत नहीं किया गया. ़फरवरी 2015 में वर्तमान सरकार के समक्ष 8000 से अधिक बेघरों ने संसद मार्ग पर धरना दिया, तब भारत सरकार द्वारा पुनः आवासीय भूमि अधिकार कानून के क्रियान्वयन का वादा किया गया था. श्यामलात जमीन, जिसे आजादी के पूर्व दलितों के लिये सुरक्षित रखा गया था, उसे भी सरकार दलितों को वितरित करने में असफल रही है. पंजाब में दलितों की संख्या 30 फीसदी होने के बावजूद उनके पास महज डेढ़ फीसदी भूमि है. यहां लगभग चार लाख एकड़ जमीन, जो आजादी के पूर्व से दलितों के लिए वैधानिक रूप से सुरक्षित रखी गई थी, उस पर दबंगों का कब्जा है.

पटियाला क्षेत्र में पटियाला महाराज के अधीन 784 छोटी-बड़ी जागीरें थीं, जिन्हें क्षेत्र में लगान वसूलने का अधिकार दिया गया था. इसे ठप्पा प्रथा कहा जाता था. 19 वीं सदी में इस लगान प्रथा के खिलाफ किसानों के छोटे-बड़े आंदोलन भी हुए. आजादी के बाद भी अनौपचारिक रूप से जमींदारों के माध्यम से यह प्रथा चल रही है. पंजाब की दो तस्वीरें हैं. हरित क्रांति के कारण बड़े जमींदारों ने अपनी बड़ी जोत के कारण अधिक धन और अधिकार हासिल कर लिया. हरित क्रांति की प्रक्रिया में लघु तथा सीमांत किसानों के लिए अवसर नहीं थे.

श्यामलात भूमि कानून के मुताबिक 28 एकड़ जमीन पर एक निश्चित शुल्क देकर गरीब परिवार लीज ले सकते हैं. पंजायत सचिव और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा बिना सूचना के ही यह औपचारिकता पूरी कर ली जाती है. वराणवाला गांव के गुरदीप सिंह के मुताबिक विगत दस वर्षों से किसी भी खुली प्रक्रिया के तहत दलितों ने श्यामलात जमीन की नीलामी की प्रक्रिया में भाग ही नहीं लिया है. वास्तव में पंचायत द्वारा जमीन की नीलामी की सूचना सार्वजनिक रूप से प्रसारित नहीं की जाती है.

आज से लगभग बीस साल पहले सभी गरीब परिवारों के पास पशुधन था. अब गांवों में चारागाह की व्यवस्था समाप्त हो चुकी है और चारागाह की जमीन पर प्रभावशील लोगों का कब्जा है. फसल की कटाई के बाद भी खेत से भूसा तथा चारा लेने की अनुमति नहीं है. जमींदारों के यहां से पशुओं का गोबर उठाने की भी अनुमति नहीं है. इंधन के लिए गोबर कंडे बनाने के लिए भी जमीदारों के यहां नि:शुल्क मजदूरी करनी पड़ती है.

वर्ष 2001 में श्यामलात भूमि के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश में प्रमुख रूप से दलितों के लिये आरक्षित भूमि पर गैर दलितों के अधिकार को समाप्त करने की बात कही गयी थी. भारत विभाजन के बाद पूरे पंजाब में 3.1 लाख एकड़ भूमि आवासहीनों तथा भूमिहीनों को दिया जाना सुनिश्चित किया गया था, जिसमें से मात्र 1.10 लाख एकड़ भूमि का वितरण किया गया. वर्ष 1961 के एक सरकारी आदेश के बाद यह भूमि पंजाब सरकार को हस्तांतरित कर दी गयी थी. बाद में इस जमीन की औपचारिक नीलामी कर दी गयी. आज इस जमीन का अधिकांश हिस्सा गरीब भूमिहीनों को मिलने की बजाय बड़े लोगों को हस्तांतरित कर दिया गया है. जिन भूमिहीन परिवारों को 1961 के पूर्व चिन्हित किया गया था, उसे भी भूमि का आवंटन नहीं किया गया.

चंडीगढ़ विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक डॉ. गोपाल अय्यर के मुताबिक आजादी के बाद पूरे पंजाब में 7 लाख एकड़ भूमि श्यामलात भूमि के रूप में अधिसूचित की गयी  थी. इस सामुदायिक भूमि का 35 फीसदी हिस्सा दलित परिवारों को सुरक्षित रखने के प्रावधान किए गए. इसमें तीन लाख एकड़ भूमि को कृषि योग्य मानते हुए इसका वितरण भी कर दिया गया था, जबकि चार लाख एकड़ भूमि को अनुपयोगी बता कर ग्राम पंचायतों तथा राजस्व विभागों को सौंप दिया गया. आज इस चार लाख एकड़ भूमि से एक बड़ा हिस्सा अवैध रूप से प्रभावशील लोगों के कब्जे में है.

वरिष्ठ अधिवक्ता गगनदीप कौर का कहना है कि श्यामलात भूमि के कानून में बदलाव की आवश्यकता है, क्योंकि जिस मकसद से इस भूमि पर दलित भूमिहीनों के रक्षा के प्रावधान रखे गये थे, वह पूरा नहीं हो पा रहा है. भूमि सुधार जेसे मसलों से छुटकारा पाने के लिये गरीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों के लिये सरकार ने कई योजनाएं चला रखी हैं. जगह-जगह लोगों ने हमसे यह कहा कि हमसे सारे कार्ड ले लीजिये, हमें सिर्फ एक एकड़ जमीन दे दीजिए.   विनोबा भावे ने एक प्रयास किया था कि जमीन का मसला मिल बैठकर समाज हल करे लेकिन सरकार के सहयोग के अभाव में यह प्रयोग समाप्त हो गया. जमीन पर ग्राम समाज का अधिकार बाजारीकरण को रोक रहा था. लेकिन अब तो कंपनियों को व्यावसायिक खेती के लिये जमीन दी जा रही है.

ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमिटी (ज़ेडपीयससी) के तत्वावधान में पंजाब के मालवा क्षेत्र के बहुत से गांवों में चल रहा भूमि आंदोलन कई मायनों में पहले के आंदोलनों से अलग है. यह एक नये किस्म का जातीय/वर्ग संघर्ष है. एक तरफ पंचायती ज़मीन की एक-तिहाई के असली हक़दार गांव के दलित हैं, दूसरी तरफ फर्जीवाड़े से उस पर, प्रशासन की मिलीभगत से काबिज रहीं ऊंची जातियां. इस आंदोलन की एक खास बात है सामूहिकता. संघर्ष की सामूहिकता की बुनियाद पर जिन गांवों के दलितों ने खेती की जमीन हासिल की हैं, वहां उन्होंने सामूहिक खेती के प्रयोग से, सामूहिक श्रम तथा उत्पादों के जनतांत्रिक वितरण की प्रणाली के सिद्धांतों पर ज़ेडपीयससी के परचम तले दलित सामूहिक की नींव डाली.

2008 में बरनाला जिले के बनरा गांव के बहाल सिंह ने क्रांतिकारी पेंदू मजदूर यूनियन के परचम तले गांव के 250 दलित परिवारों को लामबंद किया. आंदोलन से सामूहिकता की विचारधारा ने जन्म लिया. सामूहिक बोली से बनरा के दलितों ने गांव की 337 पंचायती जमीन (9 एकड़) का सामूहिक पट्टा करवा लिया. उत्पीड़न की साझी यादों तथा साझे संघर्ष से सामूहिकता की समझ उत्पन्न हुई. खाद्यान्न उत्पादन के लिए जमीन बहुत कम है, प्रति परिवार 10 बिस्सा. उन्होंने सामूहिक जमीन पर चरी और बरसीम जैसी चारे की खेती का बारहमासी फसलचक्र अपनाया. 11 लोगों की निर्वाचित समिति उत्पादन तथा समुचित वितरण की देख-रेख करती है.

पंजाब स्टूडेंट्स यूनियन (पीएसयू) के छात्रों ने सरकारी दस्तावेजों की छान-बीन कर बनरा गांव की पंचायती जमीन में दलितों का हिस्सा मालूम किया. छात्रों के नेतृत्व में दलित लंबे संघर्ष के बाद सामूहिक बोली से दलितों के लिए आरक्षित जमीन हासिल करने में सफल रहे. इन्होंने भी प्राप्त जमीन पर साझा खेती की प्रणाली को ठोस रूप दिया. शेखा के दलितों ने भी चारे की सामूहिक खेती शुरू की. बनरा की सफलता से उत्साहित पूरे राज्य में आंदोलन के विस्तार, संघर्ष को सांगठनिक आयाम देने तथा विभिन्न आंदोलनों के समन्वय के उद्देश्य से जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी(ज़ेडपीयससी) का गठन किया गया. आज मालवा के सैकड़ों गांवों में ज़ेडपीयससी के नेतृत्व में आंदोलन चल रहे हैं.

बालदकलां का आंदोलन सबसे महत्वपूर्ण है. यहां कुल श्यामनात जमीन का रकबा 375 एकड़ है, जिसमें दलितों के लिए आरक्षित जमीन का रकबा 125 एकड़ है. पंचायती जमीन की नीलामी में पुलिस-प्रशासन तथा ऊंची जातियों की मिलीभगत से फर्जीवाड़े के विरुद्ध 24 मई 2016 को संगरूर जिले की भवानीगढ़ के बालद कलां के दलितों के सड़क-रोको आंदोलन पर पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया. दलितों ने खुद को ज़ेडपीयससी की इकाई के रूप में संगठित होकर अप्रैल 2014 में संघर्ष छेड़ दिया. सामूहिक बोली से नीलामी में पट्टा हासिल कर साझा खेती शुरू कर दिया. यहां भी 11 लोगों की निर्वाचित कमेटी सामूहिक उत्पादन-वितरण की देखरेख करती है. बालद कलां की सफलता के बाद संगरूर और बरनाला जिलों के लगभग 20 गांवों में दलित सामूहिक ताकत बन चुके हैं.

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