एक प्रेमी की डायरी (4) – हीरेंद्र झा

‘जब कमरे में घुटन हो तो खिड़की खोल लेता हूँ, जब मन में कोई उलझन हो तो तुमसे बोल लेता हूँ।’  यह अब पुरानी बात है। तुम्हारे जाने के बाद सब बदल सा गया है।

अब तुमको याद करते हुए कभी कभी मेरा पूरा मन, मेरी सारी दुनिया मेरी हथेली में आकर सिमट जाती है। गहन भावुकता के एक कोमल से क्षण में मैं बहुत देर तक निहारता रहा हूँ अपनी ही हथेली को।

सुनो, मेरी हथेली की स्मृति से गायब हैं तुम्हारे स्पर्श और गंध! कुछ बिखरी हुई रेखायें हैं जो एक दूसरे की तरफ पीठ किए मौन लेटी हुई हैं। हालांकि, मेरे अंगुलियों के पोरों पर ये असंख्य बेचैन से चिह्न मुझे ये अवश्य स्मरण कराती रहती हैं कि इन बरसों में मैंने तुम्हें कितनी बार याद किया है। मुझे आभास है कि मैं अपनी वेदना तुम तक कभी नहीं पहुँचा सकूँगा।

मेरी हथेली भी यह भलीभांति जानती है कि उम्र बढ़ने के बाद उसे काँपना भी अकेले ही है। यह सोचकर वह कभी-कभी भींग भी जाती है।

हम दोनों की हथेली के संग संग क्वारन्टीन होने से लेकर आइसोलेट होने तक का यह सफ़र मेरे लिए इस सदी की सबसे महान घटना है। सबसे बड़ी त्रासदी है।

एक प्रेमी की डायरी से चुनकर कुछ पन्ने हम आपके लिए लाते रहेंगे……

 

 

 

 

 

 

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