[पिछले डेढ़ सौ सालों के इतिहास पर नज़र डालें, तो केवल छह केस अब तक  धारा 377 के तहत चले. इनमें से भी केवल एक में 1935 में अदालत ने सज़ा सुनाई. दरअसल जिस धारा के तहत डेढ़ सौ सालों में केवल एक सज़ा सुनाई गई है, उसे हटाने के लिए मचे हाय-तौबा की असली कहानी कुछ और है.]
साठ के दशक में अमेरिका में कई नई बातें हुईं, जिनमें एक था वहां पर ड्रग्स का फैलाव. इसने तेज़ी से नौजवानों को अपने जाल में जकड़ना शुरू किया. ड्रग्स, यानी नशीली दवाओं के कई प्रकार सामने आए. लेकिन नौजवान इसमें उतनी तेज़ी से नहीं फंसे, जितनी तेज़ी से वहां पर बना ताक़तवार ड्रग्स माफिया चाहता था. सरकार भी चेती और उसने सख्ती कर दी, परिणामस्वरूप ड्रग्स का फैलाव थोड़ा धीमा हो गया.
ड्रग्स का विरोध करने के लिए वहां कई सामाजिक संगठन खड़े हो गए. सेमीनार होने लगे, जिनमें बताया जाने लगा कि नशीली दवाएं ख़तरनाक हैं, इन्हें लेने वाला सपनों की दुनिया में चला जाता है, थोड़ी देर के लिए वह अपने वर्तमान से कट जाता है तथा संपूर्ण मुक्ति की अवस्था में वह पहुंच जाता है. ऐसी भाषा इस्तेमाल की जाने लगी कि सामाजिक व्यवस्था से विद्रोह करने के नाम पर नशीली दवाएं लेना सही रास्ता नहीं है. कई जगह यह भी बताया जाता था कि नशे की गोली या इंजेक्शन लेने पर लगता कैसा है. गोलियों और इंजेक्शनों को लेना किस मात्रा में ज़्यादा ख़तरनाक है, यह भी ड्रग्स विरोधी आंदोलनकारी बताते थे. सारा अमेरिका और यूरोप इन सेमीनारों, सभा, सम्मेलनों आदि के ज़रिए ड्रग्स के दुष्परिणमों से परिचित हो गया.
लेकिन सन पच्चासी में आकर एक नया खुलासा हुआ. चूंकि ड्रग्स माफिया ने एनजीओ खड़े कर दिए, सभाओं, सेमीनारों के लिए फंड करना शुरू कर दिया, इसलिए उसने ड्रग्स का विरोध करने के नाम पर ड्रग्स का प्रचार शुरू करवा दिया और अमेरिका और यूरोप में सफलतापूर्वक अपना धंधा तीन सौ गुना ज़्यादा बढ़ा लिया. सरकार समझ ही नहीं पाई कि उसकी नाक के नीचे इतना बड़ा ग़ैरक़ानूनी धंधा बढ़ गया जिसने वहां की राजनीति तक में अपना प्रभाव बढ़ा लिया. पुलिस, प्रसासन, राजनीति सभी इन माफिया गु्रपों से डरने लगे. आज अमेरिका और यूरोप में सरकार के बाद की बड़ी ताक़त यही माफिया है, जिस पर हाथ डालना वहां की सरकारों के बस में भी नहीं रह गया है.
इससे मिलता-जुलता क़िस्सा हमारे देश में भी दोहराया जा रहा है, लेकिन यह ड्रग्स या नशीली दवाओं से जुड़ा नहीं है. हमारे देश में बड़ी मांग सालों पहले उठी कि हमारे यहां वेश्यावृत्ति को क़ानूनी दर्जा दे दिया जाए, वेश्याओं को लाइसेंस दिए जाएं ताकि वे टैक्स दें, अपने स्वास्थ्य की जांच कराएं और चोरी छुपे धंधा कर समाज का स्वास्थ्य न चौपट करें. यह अभियान सफल नहीं हो पाया, क्योंकि भारत की बड़ी आबादी के संस्कारों के कारण अभियान केवल सभा सेमीनारों तक ही सीमित रह गया, इसे जन समर्थन नहीं मिल पाया. भारत में एक क़ानून है, तीन सौ सतहत्तर. यह क़ानून कहता है कि कोई भी अप्राकृतिक यौन संबंध बनाए, चाहे वह पुरुष करे, महिला करे या कोई पशुओं के साथ करे, उसे क़ानूनन आजीवन कारावास तक का दंड दिया जा सकता है. चाहे यह काम खुले रूप में हो या किसी बंद कमरे में, दंड एक ही होगा. दस साल पहले देश में कुछ संस्थाओं ने आवाज़ उठाई कि यह क़ानून होमो सेक्सुअल लोगों की आज़ादी में बाधा डालता है. बंद कमरे में सैकड़ों सालों से बहुत कम लोग यह काम करते रहे हैं, चाहे वे पुरुष हों या स्त्री. बच्चे जब बड़े होने लगते हैं तो उनमें अपने विकसित होते अंगों को लेकर उत्सुकता होती है और वे आपस में आकर्षित हो जाते हैं. लेकिन सोलह साल आते-आते उनमें समझ आ जाती है. बहुत-सी जगहों पर, जहां वयस्कों को स्त्री के पास जाने का अवसर नहीं मिलता, वहां भी एक बहुत छोटी संख्या अप्राकृतिक यौन संबंध अस्थाई तौर बना लेती है. अभी भी सौ करोड़ के मुल्क में अंगुलियों पर भी गिने जाने लायक लोग नहीं हैं जो कहें कि उन्हें अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने का अधिकार दिया जाए.
इसके बावजूद देश में ऐसे एनजीओ बनने लगे जो इन संबंधों की वकालत करने लगे. इनमें से कुछ ने कहा कि अप्राकृतिक यौन संबंधों की वजह से एड्‌स के फैलने का ख़तरा ज़्यादा है, इसलिए ऐसे लोगों का समूह हाई रिस्क ग्रुप है. और चूंकि तीन सौ सतहत्तर धारा की वजह से ये लोग सामने नहीं आते तो हम उनका इलाज और काउंसिलिंग नहीं कर पाते. इसलिए यह धारा समाप्त होनी चाहिए. जब हम अप्राकृतिक यौन संबंध की बात या होमो सेक्सुअल की बात कहते हैं तो इसे पुरुष और पुरुष के बीच का सेक्स संबंध मानना चाहिए, क्योंकि अभी तक स्त्री और स्त्री के बीच का सेक्स संबंध एड्‌स के कारणों के फैलाव में नहीं गिना जा रहा. मज़े की बात यह कि सरकार के पास न कोई अध्ययन रिपोर्ट है और न सरकारी आंकड़ा है कि पुरुष से पुरुष के सेक्स संबंध से कितनों में एड्‌स का फैलाव हुआ और उनमें अब तक कितने मरे. इतना ही नहीं, एड्‌स की जांच में औरतों की संख्या और आदमियों की संख्या अलग-अलग आई है तथा यह पता चला कि जिस औरत को एड्‌स है उससे संपर्क रखने वाले पुरुष को एड्‌स हुआ और उस पुरुष ने जिस औरत से आगे संपर्क किया उसे एड्‌स हो गया. पर कोई सबूत नहीं है कि दो स्वस्थ पुरुष आपस में संपर्क करें, या सेक्स करें और उन्हें एड्‌स हो जाए. इस बात का हिंदुस्तान में प्रचार बहुत ज़्यादा किया गया, जबकि इसका न सरकारी सबूत है और न ही वैज्ञानिक अध्ययन. बिल्कुल उसी तरह जैसे पिछड़े इलाक़े में किसी को डायन घोषित कर उसे मार डाला जाए.
अब धारा तीन सौ सतहत्तर पर एक नज़र डाली जाए. इस धारा को ख़त्म करने की मांग को लेकर उन्नीस सौ छियानवे से सारे देश में सेमीनारों की एक श्रृंखला प्रारंभ हुई और उसका प्रचार कुछ ऐसा था कि इस धारा की वजह से देश में होमो सेक्सुएलटी छुपे तौर पर बढ़ रही है, जिससे एड्‌स बढ़ रहा है, और यदि इस बीमारी का सामना करना है तो इस धारा को हटाना चाहिए अन्यथा होमोसेक्सुअल सामने नहीं आएंगे और उनका उत्पीड़न बढ़ेगा. इसका सबसे मज़ेदार पहलू है कि आज़ादी के बाद देश में एक भी ऐसा केस सामने नहीं आया, जिसे धारा तीन सौ सतहत्तर के अंतर्गत अदालत ने सुन कर सज़ा सुनाई हो.
और पीछे चलते हैं और पिछले डेढ़ सौ सालों के इतिहास पर नज़र डालते हैं. केवल छह केस अब तक इस क़ानून के तहत चले, जिनमें केवल एक केस में 1935 में अदालत ने सज़ा सुनाई. जिस धारा के तहत डेढ़ सौ सालों में केवल एक सज़ा सुनाई गई हो, उसे हटाने के लिए करोड़ों ख़र्च कर देश में सेमीनारों की श्रृंखला शुरू करवा दी गई. सन दो हज़ार में दिल्ली में एक बड़ा सेमीनार हुआ जिसमें क़ानून के क्षेत्र से रिश्ता रखने वाले अधिकांश व्यक्तियों को शामिल करने की सफल कोशिश की गई. यह सेमीनार एक बड़े पांच सितारा होटल में हुआ, जिसमें मौजूदा और रिटायर हो चुके न्यायाधीश तथा सोली सोराबजी जैसे वकील शामिल हुए. सेमीनार से ध्वनि निकली कि अगर कोई एनजीओ आगे आए तो देश की न्यायपालिका इस केस पर विचार करने को तैयार है.
इसके बाद ही दिल्ली हाई कोर्ट में इस धारा को हटाने के लिए याचिका एक एनजीओ ने दाख़िल की, जिसे हाई कोर्ट ने 2004 में डिसमिस कर दिया. इसके बाद रिव्यू पिटीशन डाली गई, उसे भी हाई कोर्ट ने रिजेक्ट कर दिया. तब वह एनजीओ सुप्रीम कोर्ट गया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वे इसे नहीं सुनेंगे और हाई कोर्ट से कहा कि वह इस केस को सुने और तमाम पहलुओं को, जिन्हें याचिकाकर्ता मानता है कि ध्यान नहीं दिया गया है, सुने और फैसला दे. अब दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला आया है कि जब तक देश की संसद इस पर अपनी राय नहीं देती, तब तक धारा तीन सौ सतहत्तर के तहत प्राइवेट में अप्राकृतिक सेक्स की परिभाषा के तहत आने वाले केस स्थगित रहेंगे और प्राइवेट में आपसी सहमति से मैन टु मैन यानी पुरुष से पुरुष संपर्क हो सकता है और इसे ग़ैर क़ानूनी नहीं माना जाएगा.
देश में इसका स्वागत इस तरह किया गया है मानो पूरा देश होमो सेक्सुअल मानसिकता का है और उसे अब खुल कर संबंध बनाने की आज़ादी मिल गई है. भारतीय मीडिया का उत्साह विश्व में काफी उत्सुकता से देखा गया और लगभग बड़े अख़बारों और टी.वी. चैनलों ने इसे भारत का समर्थन करना बताया. हम फिर ध्यान दिला दें कि भारत में समलैंगिकता या पुरुष से पुरुष संपर्क को सामाजिक मान्यता तो दूर, स्वयं पुरुष वर्ग में काफी घृणा की दृष्टि से देखा जाता है. तब आख़िर इस फैसले का मतलब क्या है और इसका अर्थ क्या निकलता है, इसे जानना चाहिए. हाई कोर्ट के इस फैसले ने भारत के इक्कीसवीं शताब्दी में जाने के रास्ते खोल दिए हैं. और वह रास्ता जाता है दुनिया की तीसरी सबसे ताक़तवर इंडस्ट्री-सेक्स इंडस्ट्री-के द्वारा देश को अमेरिका और यूरोप से बड़े सेक्स हब में बदलने का. एक मोटे अनुमान के अनुसार अमेरिकी मा़िफया द्वारा नियंत्रित सेक्स इंडस्ट्री तीन ट्रीलियन डॉलर की है, अर्थात इसका टर्नओवर तीन ट्रीलियन डॉलर है. अमेरिकी फार्मा इंडस्ट्री, ड्रग्स इंडस्ट्री, आर्म्स इंडस्ट्री और सेक्स इंडस्ट्री ये चार ताक़तवर उद्योग हैं जो सारी दुनिया को अपने क़ब्ज़े में लेने की योजना बना रहे हैं. जहां-जहां इनकी जड़ें मज़बूत होती हैं वहां की सरकारें, राजनीति, उद्योग, न्यायव्यवस्था सभी इनके इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं. अमेरिका और यूरोप के किसी भी देश में जाइए, आपको इसके खुले स्वरूप देखने को मिल जाएंगे. वहां गे पार्लर हैं, गे क्लब हैं, फ्रैंडशिप क्लब हैं, एस्कोर्ट सर्विस हैं. एक समानांतर सरकार सेक्स इंडस्ट्री द्वारा नियंत्रित होती है. उनकी अपनी पुलिस है, न्याय व्यवस्था है, सरकार है जो संवैधानिक व्यवस्था को जब चाहे अपनी तऱफ से तोड़-मरोड़ कर अपना अस्तित्व दिखाती रहती है.
इस ताक़तवर सेक्स इंडस्ट्री ने अमेरिका और यूरोप से बाहर मैक्सिको, ब्राज़ील, फिलीपींस और थाईलैंड को विश्व के आकर्षक सेक्स केंद्रों में बदल दिया है, जहां दुनिया भर के लोग सेक्स टूरिज़्म के लिए जाते हैं. सन अस्सी के बाद से विश्व सेक्स माफिया की निगाह भारत पर थी, क्योंकि भारत ही एशिया में सबसे आसान निशाना है. पाकिस्तान सहित इस्लामिक देशों में सेक्स हब बनाने की कोशिश तक नहीं की जा सकती थी. लंका, नेपाल छोटे देश हैं. हालांकि नेपाली लड़कियों का बाज़ार छोटे माफिया गिरोहों ने भारत में खोल दिया है. चीन कम्युनिस्ट देश है, जहां अभी यह संभव नहीं है. पूर्वी यूरोप के देशों में अमेरिकी माफिया ने सेक्स की छोटी-छोटी मंडियां ज़रूर बनाई हैं, पर उनका सपना तो एक बड़े बाज़ार का था. भारत से बेहतर यह जगह हो ही नहीं सकती थी. इसके लिए एड्‌स के हाई रिस्क गु्रप की कहानी भारत में हक़ीक़त बनाई गई और बिना आधार के होमोसेक्सुअल को हाई रिस्क गु्रप में डाल दिया गया. जिन्होंने तीन सौ सतहत्तर का विरोध किया, उन्हें इतने बड़े पैमाने पर अभियान चलाने के लिए फंड कहां से आया? इस फंड के स्रोत का कभी पता नहीं चल पाएगा. दिल्ली में जीबी रोड पर 2500 के क़रीब सेक्स वर्कर हैं. यहां से एचआईवी के फैलने का ख़तरा सबसे ज़्यादा है, लेकिन यहां तो कोई एनजीओ कारगर काम कर नहीं रहा. उसी तरह दिल्ली में पचास हज़ार से ज़्यादा महिलाएं सेक्स के धंधे में शामिल हैं जो अच्छी कॉलोनियों में रहती हैं और कहीं भी उपलब्ध हो जाती हैं, उनके बीच भी कोई एनजीओ एड्‌स को लेकर काम नहीं कर रहा. धारा तीन सौ सतहत्तर एक बांध की तरह थी, जिसे उन ताक़तों ने तोड़ दिया जो देश को एक बड़े सेक्स बाज़ार में बदलना चाहती हैं.
अब होमो सेक्सुअल के गे क्लब और गे पार्लर बनेंगे, जिन्हें हम जल्दी ही दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और बेंगलुरु में देखेंगे. धारा तीन सौ सतहत्तर के अप्रभावी हो जाने से इनके निर्माण में कोई बाधा नहीं रह गई है. इसकी अगली कड़ी वेश्यावृति को क़ानूनी दर्जा दिलाने की होगी, क्योंकि बिना उसके एड्‌स नियंत्रण का कार्यक्रम प्रभावी रूप से चलाया नहीं जा सकता. यह तर्क भी हमारे ज़्यादा सोचने-समझने वाले निर्णायकों को पसंद आएगा और तब हम देखेंगे देश को एक बड़े सेक्स बाज़ार के रूप में. ग़रीबी की आग में जलता देश अंतरराष्ट्रीय माफिया के लिए आदर्श जगह है, जहां से दुनिया के दूसरे हिस्से में भी गर्म गोश्त सप्लाई हो सकता है. अब लिबरलाइज़ेशन का ज़माना है. विश्व बाज़ार की चौथे नंबर की टर्नओवर वाली सेक्स इंडस्ट्री का भारतीय हिस्सा 50 बिलियन डॉलर के आसपास आंका जा रहा है. यहीं सवाल खड़ा करना चाहिए कि भारत की संसद और भारत का सर्वोच्च न्यायालय क्या अपनी आंख, नाक, कान बंद किए हुए हैं? क्या उन्हें नहीं दिखाई देता कि एक फैसला भारत को दुनिया के सबसे बड़े सेक्स बाज़ार में बदल देगा और हम मैक्सिको, फिलीपींस, थाईलैंड और ब्राज़ील से भी बड़े गर्म गोश्त के हब बन जाएंगे? सुप्रीम कोर्ट को तत्काल अपनी तऱफ से दखल देना चाहिए. संसद को संज्ञान लेना चाहिए. क्या दो जज एक फैसले से भारत की क़िस्मत लिख सकते हैं? हमारी न्यायप्रणाली कहती है कि जजों से भी चूक हो सकती है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट को तुरंत हस्तक्षेप करना चाहिए. हमारा विश्वास है कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय और भारत की संसद अमेरिकी माफिया के दबाव में अभी नहीं है, इसलिए वह हिंदुस्तान की बुनियादी संस्कृति और संविधान निर्माताओं की मंशा को ध्यान में रख कर फैसला लेगी. हम उस क्षण का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं, जब सर्वोच्च न्यायालय और भारत की संसद की आंख खुलेगी.

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