mokshदुनियाभर के हिन्दू धर्मावलम्बियों की श्रद्धा के बड़े केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध गया में इन दिनों पितृपक्ष मेला लगा है. 15 दिन के इस मेले में हिन्दू धर्मावलम्बी अपने पितरों की मोक्ष की कामना के लिए पिंडदान करने लाखों की संख्या में प्रतिवर्ष आते हैं. बढ़ती आबादी के साथ इस मेले में आनेवाले लोगों की संख्या भी बढ़ती जा रही है. फलत: राज्य सरकार, जिला प्रशासन और पर्यटन विभाग के संयुक्त तत्वाधान में इस मेले की व्यवस्था की जाती है.

राजकीय मेला घोषित हो जाने के बाद से राजस्व विभाग भी इस मेले से जुड गया है. इन विभागों के अलावा गया नगर निगम, स्वास्थ्य विभाग, बिजली विभाग, लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग के अलावा अन्य सभी सरकारी तंत्र भी इस मेले की व्यवस्था में लगे रहते है. सबसे बड़ी जिम्मेवारी पुलिस विभाग की होती है. इस मेले में आसपास के जिले से भी सुरक्षाकर्मियों को लाकर ड्‌यूटी पर लगाया गया है. गया के पितृपक्ष मेले के लिए प्रशासन की तरफ से पूरी व्यवस्था की गई है. आवासन के साथ-साथ तीर्थयात्रियों को पानी, बिजली और यातायात की सुविधा भी उपलब्ध कराई गई है.

मेला क्षेत्र में जगह-जगह स्वाथ्य शिविर, सुरक्षा शिविर की व्यवस्था है. सरकारी व गैर सरकारी संगठनों की ओर से विभिन्न तरह का सहायता शिविर भी लगाया गया है. बावजूद इसके पिंडदान करने आए तीर्थयात्रियों को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. प्रशासन की कार्यनीति को लेकर लोगों में शिकायत है. शिविरों में तैनात सरकारी कर्मी श्रद्धालुओं को गया वाले पंडा के पते और पिंडस्थलों तक जाने आदि की जानकारी नहीं दे पा रहे हैं. पंडों की तरफ से भी शिकायतें आ रही हैं कि बिना उनकी जानकारी के ही सरकारी कर्मियोंे को ड्‌यूटी पर लगा दिया गया है. इनका कहना है कि मेला प्रबंधन पूरी तरह से निष्क्रिय है. न तो हमारा सुझाव लिया जा रहा है और न ही कोई जानकारी दी जा रही है.

हालांकि इन सब शिकायतों और परेशानियों के बावजूद, पिण्डदान करने आए लोगों की श्रद्धाभक्ति में कोई कमी नहीं दिख रही है. पुनपुन घाट से ही मेले की रौनक शुरू हो जाती है. गौरतलब है कि मेले का प्रारंभ पटना जिला स्थित पुनपुन घाट में पूजा-पाठ से होता है. गया क्षेत्र में प्रवेश के पूर्व पुनपुन नदी के तट पर पिण्डदान कर लेना आवश्यक बताया गया है. पुनपुन को गया क्षेत्र का द्वारा भी कहा जाता है. पहले पंडा वहां जाकर पूजा कराते थे, किन्तु अब घर बैठे ही रस्म पूरा करा लिया जाता है.

पहले पिण्डदान करने का अधिकार सिर्फ पुरुषों को ही था, लेकिन 1985 में मिथिला के पंडितों ने स्त्रियों को भी पिण्डदान का अधिकार प्रदान कर दिया. फलत: अब स्त्रियां भी पिण्डदान करती हैं. पिण्डदान करने वाले हर स्त्री-पुरुष पहले विष्णुपद ‘फल्गु’ के तट पर जाते हैं और फिर मुंडन कराकर फल्गु में स्नान करने के बाद अपने पीढ़ीगत गया वाले पंडों के माध्यम से तर्पण का कार्य करते हैं. किसी भी श्राद्धकर्ता को कम-से-कम विष्णुपद, फल्गु और अक्षवट में पिण्डदान करना अनिवार्य है. फल्गु तट पर सीताकुंड है, जहां बालू का पिंड देने का विधान है.

गया में होने वाले पिंडदान की महता की बात करें, तो ये परम्परा वैदिक काल से चली आ रही है. गया की पहचान तो प्राचीन काल से ही धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा के पितृतीर्थ के रूप में है. वेदों में भी गया का जिक्र मिलता है. गया को तीर्थों का प्राण कहा गया है. अंतिम मोक्ष की प्राप्ति का स्थान गया को ही माना गया है. कहा जाता है कि जो पिता की मृत्यु के बाद क्षय तिथि को सत्पति एवं सच्चरित्र ब्राह्मणों को भोजन कराकर विधिपूर्वक गया में श्राद्ध करता है, वही पुत्र कहलाने के योग्य होता है. भारतीय ज्योतिष एवं धर्मशास्त्र के अनुसार, आश्विन के कृष्ण पक्ष का सम्बन्ध पितरों से है और शुक्ल पक्ष का संबंध देवताओं से है. यह माना जाता है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में (सूर्य के कन्या राशि पर स्थित होने पर) यमराज पितरों को यमालय से मुक्त कर देते हैं और वे मनुष्य लोक में आकर अपनी संतततियों से पिंडदान आदि की आशा करते हैं. यदि इनके पुत्रगण इन्हें इनकी तिथियों पर पिण्डदानादि करते हैं, तो वे प्रसन्न होते हैं और इन्हें अभ्युदय का आशीर्वाद देते हैं. इसके विपरीत (पिण्डादानादि न करने पर) वे पुत्रों को शाप भी देते हैं. यही कारण है कि पितृपक्ष में पितृजनो की प्रसन्नता के लिए प्रतिपदा से अमावस्या तक प्रतिदिन तर्पणादि किया जाता है और अपने पितरों की निधन तिथि पर विधिपूर्वक श्राद्ध कर्म किया जात है. श्राद्ध का यह कृत्य मात्र पितरों के प्रसाद के लिए ही नहीं किया जाता है, अपितु इससे समस्त प्राणियों को भी तृप्ति होती है.

ऐसे तो पितरों की मोक्ष प्राप्ति के लिए गया में सालों भर पिण्डदान होता है. पिण्डदान के लिए लोग यहां देश-विदेश से आते रहते हैं. लेकिन आश्विन महीने के कृष्णपक्ष में यहां पिंडदान का विशेष महत्व है. इसे पितृपक्ष के रूप में जाना जाता है. ऐसा माना जाता है कि इस अवधि में सारे पितर गया में आते हैं और अपनी संततियों से पिण्डदान की अपेक्षा करते हैं. यही कारण है कि पन्द्रह दिनों तक लगने वाले पितृपक्ष मेले में देश के कोने-कोने से ही नहीं, बल्कि विदेशों से भी हिन्दू धर्मावलम्बी अपने पितरों को पिण्डदान-तर्पण करने गया आते हैं. खासकर नेपाल, श्रीलंका, मॉरीशस, फिजी, गुयाना, तिब्बत, म्यांमार, भूटान आदि देशों के श्रद्धालुओं की भीड़ अधिक जमा होती है.

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