Santosh-Sir

लोकसभा या राज्यसभा टेलीविज़न का कैमरा जब सदन में घूमता है, तो वहां कुर्सियां खाली दिखाई देती हैं. स़िर्फ एक वक्त होता है, जब कुर्सियां भरी हुई होती हैं और वह है कभी-कभी 12 बजे का वक्त, जिसे शून्यकाल कहा जाता है. उसमें लोग अपनी भड़ास निकालते हैं, गुस्सा करते हैं और एक-दूसरे के ऊपर ताने कसते हैं. कुछ लोग लिखित वक्तव्य पढ़ देते हैं और फिर बाहर चले आते हैं और ऐसे में पूरे दिन के लिए संसद सूनी हो जाती है.

संसद में जो होता है, वैसा तो मनोरंजन परोसने वाले टीवी चैनल भी नहीं दिखाते. वे लोग, जिन्होंने संसद के टीवी प्रोग्राम नहीं देखे हैं, अभी भी मानते हैं कि संसद बहुत ही गरिमामयी और बहुत पवित्र चीज है, जहां पर हमेशा उनके हित के बारे में ही विचार-विमर्श होता है और लोगों की ज़िंदगी बेहतर बनाने के क़ानून बनाए जाते है. पिछले चार सालों या कहें कि आठ सालों से संसद की कार्यवाही देखने वाले लोग न केवल हैरान हैं, बल्कि परेशान हैं, क्योंकि जिसे वे संसद में भेजते हैं, वह उन्हें कभी भी अपनी कुर्सी पर बैठा हुआ दिखाई नहीं देता. लोकसभा या राज्यसभा टेलीविज़न का कैमरा जब सदन में घूमता है, तो वहां कुर्सियां खाली दिखाई देती हैं. सिर्फ़ एक वक्त होता है, जब कुर्सियां भरी हुई होती हैं और वह है कभी-कभी 12 बजे का वक्त, जिसे शून्यकाल कहा जाता है. उसमें लोग अपनी भड़ास निकालते हैं, गुस्सा करते हैं और एक-दूसरे के ऊपर ताने कसते हैं. कुछ लोग लिखित वक्तव्य पढ़ देते हैं और फिर बाहर चले आते हैं और ऐसे में पूरे दिन के लिए संसद सूनी हो जाती है.
कई बार इस मुद्दे पर ध्यान दिलाया गया कि जब किसी भी सदन में स्वास्थ्य, शिक्षा, बेरोज़गारी, महंगाई जैसे सवालों पर चर्चा होती है, तो सदस्य उस चर्चा में भाग क्यों नहीं लेते? सदन खाली दिखता है. स़िर्फ जो बोलने वाला है, वह अकेला खड़ा कैमरे को साथी सांसद मानकर बोलता रहता है और कैमरा चलाने वाला कैमरामैन अगर गलती से उस व्यक्ति के ऊपर से अपना फोकस हटा दे, तो उसे सिर्फ़ दिखाई देता है खाली सदन और खाली कुर्सियां. आख़िर ये सांसद कहां जाते हैं और क्यों जाते हैं? संसद में दोनों सदनों के बीच में एक जगह है, जिसे सेंट्रल हॉल कहते हैं. ये सांसद सेंट्रल हॉल में बैठकर सामिष-निरामिष, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय भोजन करते हैं, नाश्ता करते हैं और मिठाइयां भी खाते हैं. एक-दूसरे की चुगली करते हैं, टांगें भी खींचते हैं. चूंकि इन्हें न तो आम लोगों के दर्द से कोई मतलब है और न ही खास लोगों की तकलीफ से. इसलिए चाहे शिक्षा की बात हो, स्वास्थ्य की बात हो, भ्रष्टाचार की बात हो, महंगाई की बात हो या रोज़गार की, ये उसे गंभीर नहीं मानते और इसलिए सदन में नहीं बैठते. शाम के तीन से चार बजे के बीच कभी भी कोरम की घंटी बज जाती है, क्योंकि सदन में इतने भी सांसद नहीं होते कि कोरम पूरा हो सके. तब संसदीय कार्यमंत्री दौड़कर पहुंचता है सेंट्रल हॉल में और सांसदों से प्रार्थना करता है कि वे सदन में बैठें. अब सवाल उठता है कि ये हमारे कैसे सांसद हैं? उसी सदन में एक मंत्री अपने साथी सांसद के ऊपर टिप्पणी कर देता है. सदन के बाहर की गई टिप्पणी पर यदि मुक़दमा चल सकता है, तो फिर सवाल यह उठता है कि सदन के ऊपर की गई टिप्पणी पर मुकदमा क्यों नहीं चल सकता? इसलिए सदन के बाहर सांसद एवं मंत्री अपने साथियों को चोर, लुटेरा, दलाल और कमीशनखोर बोलते हैं. और जब वे सदन में आते हैं, तो खेद व्यक्त कर देते हैं. उन्हें लगता है कि खेद व्यक्त कर देने से उनके सारे अपराध माफ़ हो गए हैं और जिनके ऊपर टिप्पणियां होती हैं, वे मुस्करा कर इस स्थिति का भी फ़ायदा उठाने की रणनीति बनाते हैं. आज तक पिछले 20 सालों में हमारी संसद ग़रीबों, नौजवानों और दलितों के सवाल पर ठप्प नहीं हुई. अगर कभी ठप्प हुई भी है, तो कहीं किसी हत्याकांड के विरोध में, वह भी केवल आधे घंटे या एक घंटे के लिए. ऐसी संसद को कोई कैसे पूजे और कोई कैसे इस संसद को लोकतंत्र का मंदिर माने? अगर यह संसद लोकतंत्र का मंदिर नहीं है, तो क्या यह संसद भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वालों का अड्डा बन गई है? बहुत पहले जॉर्ज फर्नांडिस ने अपने एक लेख में कहा था कि यह संसद ठगों और पिंडारियों का अड्डा बन गई है और तब खूब शोर-शराबा हुआ था, लगा कि जैसे देश में दिमागी भूचाल आ गया है. जिसे देखिए, वही जॉर्ज फर्नांडिस की आलोचना कर रहा था. पर वास्तविकता आख़िर है क्या?
हम यह नहीं कहते कि संसद में अपराधी हैं, बलात्कारी हैं, ठग हैं, लुटेरे हैं और दलाल हैं. हम यह बिल्कुल नहीं कहते. अगर संसद में सब सत्य और ईमानदारी के पुतले हैं, तो फिर यह संसद कभी देश की समस्याओं के ऊपर विचार क्यों नहीं करती? ऐसे क़ानून क्यों नहीं बनाती, ऐसे संशोधन क्यों नहीं लाती, जिनसे लोगों की ग़रीबी दूर हो. इस संसद में किसी सांसद को यह नहीं पता कि पिछले तीन सालों में 50 लाख रोज़गार ख़त्म हो गए. किसी सांसद को क्यों नहीं पता कि 50 लाख रोज़गार ख़त्म होने का मतलब क्या होता है? केंद्रीय मंत्रिमंडल को इसकी चिंता क्यों नहीं हुई और किसी सांसद ने केंद्रीय मंत्रिमंडल के गिरेबान पर हाथ क्यों नहीं डाला? यहां सवाल यह भी उठता है कि सांसद योजना आयोग की बेहयाई पर, उसके लकवाग्रस्त होने पर चिंताग्रस्त क्यों नहीं होते? सांसदों को यह डर क्यों नहीं सताता कि उन्हीं के देश में 272 ज़िले नक्सलवादियों की चपेट में आ चुके हैं. नक्सलवादियों की चपेट में आने का मतलब है कि उन 272 ज़िलों में विकास की धारा का लगभग न होना या समाप्त हो जाना. संसद में बैठने वालों को अगर लोगों का दर्द न सताए, तो उन्हें आख़िर क्या कहें, उनके लिए कौन से विशेषण तलाशें और उनके लिए कौन से सम्मानजनक शब्द गढ़ें? कुछ शब्द ऐसे लोगों के लिए गांव में अप्रिय, असंसदीय माने जाते हैं. गांव में ठीक है, पर संसद में बैठने वाले चिंता से दूर मस्त जीव, उन्हें आख़िर कहें, तो क्या कहें? क्या कोई उनके लिए नए संसदीय शब्द गढ़कर हमें भेज सकता है? अगर भेजेंगे, तो हम उसे छापेंगे.
जिस संसद को हमने इस देश में बदलाव के औज़ार के रूप में देखा, आज वही संसद यथास्थिति बनाए रखने का सबसे विद्रूप हथियार बन गई है. दरअसल, यह उन्हीं लोगों को मारती है, जो बदलाव का काम करते हैं. यह उन्हीं लोगों की हत्या करती है, जो नए समाज का सपना देखते हैं. यह उन्हीं लोगों को धारा से बाहर करने की कोशिश करती है, जिनके दिलों में ग़रीब के लिए दर्द होता है. क्या हमारी संसद यह चाहती है कि लोग उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने लगें? उसे यथास्थितिवादियों को संरक्षण देने वाली संसद की संज्ञा देने लगें? अब देखना यह है कि हमारे सांसदों को, संसद में बैठने वाले लोगों को ग़रीबों, वंचितों या महिलाओं का दर्द सालता भी है या नहीं? ये सारे लोग कबीर दास जी की इस दोहे को भूल गए, निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय, मुई खाल की श्‍वांस सों सार भस्म हुई जाय. इसका मतलब है कि ग़रीब की हाय नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि मरे हुए चमड़े की धौंकनी से लोहा ख़त्म हो जाता है. लेकिन हमारी संसद, हमारे सांसद, हमारी सरकार और हमारे विरोधी दल ग़रीबों की हाय लेने में एक-दूसरे से होड़ लेते हुए दिखाई देते हैं. चलिए, देखने का समय आ गया है कि इस होड़ में जनता जीतती है या हमारे सांसद, हमारी संसद या फिर हमारी सरकार और हमारे विरोधी दल जीतते हैं.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here