वे फाइलें, जिनका सीधा रिश्ता कोल ब्लॉक के आबंटन से है और जिन पर कोयला मंत्री के रूप में प्रधानमंत्री की टिप्पणियां हैं. दस्तखत हैं. ये फाइलें कोयला मंत्रालय के दफ्तर से गायब हो गईं. जब सीबीआई की जांच चल रही है, सुप्रीम कोर्ट इस जांच में दिलचस्पी ले रहा है. तब ऐसी फाइलों का गायब होना आपराधिक कृत्य का संदेह पैदा कर रहा है. यह फाइलें जानबूझ कर गायब की गईं.
Santosh-Sirलगता है कि राजनीति में जिम्मेदारी और गंभीरता दोनों ही समाप्त-सी हो गई हैं. लगभग छह महीने पहले जब पहली बार कोयला घोटाले के ऊपर सवाल उठे तो प्रधानमंत्री ने साहसिक वक्तव्य दिया कि अगर उनके ऊपर हल्का-सा भी घोटाले का छींटा आया तो वे न केवल प्रधानमंत्री पद से, बल्कि सार्वजनिक जीवन से भी सन्यास ले लेंगे. यह वक्तव्य दरअसल प्रधानमंत्री का था, जिसने संदेश दिया कि भारत का प्रधानमंत्री किसी भी घोटाले में शामिल नहीं है.
इसके ठीक एक महीने के बाद सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी आई कि कोयला घोटाला हुआ है. हमें अपेक्षा थी कि प्रधानमंत्री इस टिप्पणी का कोई न कोई उत्तर अवश्य देंगे, लेकिन प्रधानमंत्री ने चुप्पी साध ली. ठीक पंद्रह दिन के बाद सर्वोच्च न्यायालय में सीबीआई ने अपनी अंतरिम जांच रिपोर्ट पेश की, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया कि यह रिपोर्ट किसी ने देखी तो नहीं है या इसमें कोई बदलाव तो नहीं हुआ है? इस पर अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि न तो यह रिपोर्ट किसी ने देखी है और न ही इसमें कोई बदलाव हुआ है. सुप्रीम कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल से कहा कि यही बात सीबीआई को हलफनामे के साथ कहनी चाहिए और यहीं से खुलासे होने शुरू हो गए. सरकार में बैठकों का दौर शुरू हो गया और सुप्रीम कोर्ट को क्या जवाब दिया जाए, इस पर माथापच्ची होने लगी. कई तरीके सोचे गए, लेकिन सीबीआई के डायरेक्टर उन तरीकों से सहमत नहीं हुए. एक तो यह जांच सुप्रीम कोर्ट के अधीन चल रही थी. दूसरे सीबीआई की रिपोर्ट में क्या बदलाव हों, कौन-सी लाइनें हटाई जाएं और कौन से पैरे जोड़े जाएं, इसका सारा प्रमाण ई-मेल पर था. सुप्रीम कोर्ट यह कह चुका था कि जांच रिपोर्ट पहले किसी को दिखाई न जाए और यही डर सीबीआई डायरेक्टर के मन में था कि अगर वो सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देते हैं, तो यह सुप्रीम कोर्ट में झूठ बोलने जैसा होगा.
उन्होंने हलफनामा दिया और उसमें सारी बातें खोल दीं. उन्होंने कहा कि इस रिपोर्ट को कानून मंत्री, प्रधानमंत्री के संयुक्त सचिव और कोयला मंत्रालय के संयुक्त सचिव ने देखा भी है और इसमें बदलाव भी किए हैं. इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी बताया कि इसे स्वयं अटॉर्नी जनरल ने भी देखा है. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में दोनों रिपोर्ट पेश कर दी. एक तो वो, जिसे सीबीआई ने अपनी तरफ से तैयार किया था और दूसरी वो, जिसे कानून मंत्री प्रधानमंत्री कार्यालय के ज्वॉइंट सेक्रेट्री और कोयला मंत्रालय के ज्वॉइंट सेक्रेट्री द्वारा बनवाया गया था. सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ सारे देश को लगा कि कहीं कोई बहुत बड़ा घपला है. अन्यथा रिपोर्ट बदलने की कोशिश क्यों होती. प्रधानमंत्री मौन की पराकाष्ठा पर थे.
अटॉर्नी जनरल संवैधानिक पद होता है और वो देश की न्याय व्यवस्था का एक हिस्सा है, लेकिन जब अटॉर्नी जनरल स्वयं सुप्रीम कोर्ट में जज के सामने गलतबयानी करें और इस्तीफा भी न दें, तो समझा जा सकता है कि हालात बेशर्मी की हद तक बिगड़ चुके हैं.
सीबीआई की इस रिपोर्ट को देखने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई पर मशहूर टिप्पणी की कि सीबीआई की हालत पालतू तोते जैसी है. जैसा मालिक कहेगा, तोता वैसा ही बोलेगा. इस पर सीबीआई ने सफाई दी कि वो सरकार का अंग है और उसे सरकार से दिशा-निर्देश लेने पड़ते हैं. सुप्रीम कोर्ट को सीबीआई के इस रुख से बहुत हैरानी है.
अब फाइलों का मसला आया. वे फाइलें, जिनका सीधा रिश्ता कोल ब्लॉक के आबंटन से है और जिन पर कोयला मंत्री के रूप में प्रधानमंत्री की टिप्पणियां हैं. दस्तखत हैं. ये फाइलें कोयला मंत्रालय के दफ्तर से गायब हो गईं. जब सीबीआई की जांच चल रही है, सुप्रीम कोर्ट इस जांच में दिलचस्पी ले रहा है, तब ऐसी फाइलों का गायब होना आपराधिक कृत्य का संदेह पैदा कर रहा है. यह फाइलें जानबूझ कर गायब की गईं. पूरे नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक में सेंसर लगे हैं. कैमरे लगे हैं. महत्वपूर्ण फाइलों के रखने की जगह पर कैमरे लगे हैं. ऐसी स्थिति में फाइलों का गायब होना यह संदेह पैदा करता है कि इन्हें गायब करने का फैसला सर्वोच्च स्तर पर लिया गया होगा. शायद सुप्रीम कोर्ट को बरगालने की नीयत भी इसके पीछे हो.
सुप्रीम कोर्ट ने इस हालात पर सख्त नाराजगी दिखाई और पूछा कि क्या फाइलों के गायब होने की एफआईआर लिखी गई. सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को निर्देश दिया की वह 15 दिन के भीतर या तो फाइलों को खोजे या एफआईआर दर्ज करे. एफआईआर का मतलब उस दौरान इन फाइलों से संबंध रखने वाले सभी लोगों से पूछताछ करना है, जिनमें प्रधानमंत्री भी शामिल हैं, जो उस समय कोयला मंत्री थे. मजे कि बात यह कि मौजूदा कोयला मंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री ने बड़ी हिम्मत के साथ कह दिया कि फाइलों की देख-रेख का जिम्मा उनका नहीं है. इसका मतलब कि इसका जिम्मा किसी अपर डिवीजन क्लर्क का है. अब यह सीबीआई और अंतत: सुप्रीम कोर्ट को देखना है कि अगर इतनी महत्वूर्ण फाइलों का जिम्मा प्रधानमंत्री और कोयला मंत्री का नहीं है तो जिसका भी जिम्मा रहा हो, उसने किसके कहने पर इन फाइलों को गायब किया.
फाइलों का गायब होना, सुबूतों को गायब करना है और इसकी जिम्मेदारी किसी न किसी के ऊपर आएगी. अगर सर्वोच्च स्तर पर इन्हें गायब करने का फैसला नहीं लिया गया होता तो अब तक इसकी एफआईआर हो चुकी होती और सरकार एफआईआर के साथ सुप्रीम कोर्ट को सूचित करती कि फाइलें गायब हो चुकी हैं. पर सरकार ने अपनी ओर से सुप्रीम कोर्ट को कोई सूचना नहीं दी.
सुप्रीम कोर्ट इस स्थिति से सख्त नाराज है और उसने साफ शब्दों में सीबीआई को कहा है कि पूरी जांच दिसंबर तक समाप्त हो जानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने फाइलों के गायब होने के मसले को सच नहीं माना है. उसका कहना है कि फाइलों को तलाशिए और अगर फाइलें नष्ट कर दी गई हैं तो भी फाइलों की कई प्रतियां मौजूद हैं. फाइलों की एक प्रति  सीवीसी और सीएजी दोनों के पास मौजूद है, लेकिन इन दोनों  संगठनों का कहना है कि हमसे फाइलों की मांग की ही नहीं की गई.
दिसंबर में क्या होगा? कौन जानता है. कोयला घोटाले में क्या निकलेगा, यह भी कौन जानता है, लेकिन आज जो हो रहा है, उसे हम सब जानते हैं. अगर इतनी महत्वपूर्ण फाइलें, जिनका रिश्ता सुप्रीम कोर्ट से है, इतनी आसानी से गायब हो सकती हैं तो फिर हमारे देश के खुफिया राज, सामरिक और आर्थिक महत्व से जुड़ी फाइलें इससे भी ज्यादा आसानी से पाकिस्तान और चीन या फिर रूस और अमेरिका टहलने चली जाती होंगी और हमें इसके बारे में कोई जानकारी ही नहीं उपलब्ध हो पाती होगी. शायद तभी साउथ ब्लॉक के गलियारों में आसानी से हथियारों के दलाल घूमते देखे जाते हैं और किसी भी घोटाले की जांच का कोई नतीजा नहीं निकलता है.
मन में तो सवाल उठता ही है कि क्या ऐसे ही आजाद भारत के लिए चंद्रशेखर आजाद ने गोली खाई थी और भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु फांसी पर चढ़े थे. इनके जैसे लाखों लोगों ने जिस आजाद भारत के लिए अपनी जानें दीं, आज उस आजाद भारत में जिन पर भ्रष्टाचार को रोकने की जिम्मेदारी है, वे भ्रष्टाचार की मैराथन के चैंपियन बने हुए हैं. और विडंबना तो यह है कि जो इस स्थिति के खिलाफ आवाज उठाते हैं, उनको कैसे चुप कराया जाए, इसकी योजना आज की सरकार और आज का विपक्ष मिलकर बनाते हैं. जिन्हें भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और महात्मा गांधी के बलिदान को बर्बाद करते हुए शर्म नहीं आती, उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ उठने वाली आवाज को बंद करने की कोशिश करने में वीभत्स प्रसन्नता मिलना स्वाभाविक है.

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