Santosh-Sir

मुझे लगता है कि जो लोग भी आजकल भगत सिंह सुखदेव या रामप्रसाद बिस्मिल का नाम लेते हैं, उन्हें ये राजनेता महान मूर्ख मानते हैं. उन्हें लगता है कि इनके दिमाग़ में कोई ख़राबी आ गई है या दिमाग़ का कोई कल-पुर्जा ढीला हो गया है, जो आज़ादी के शहीदों का नाम लेते घूम रहे हैं. मैंने अपने संवाददाताओं से एक सर्वे कराया, जिसमें ख़ुलासा हुआ कि किसी भी नेता के घर में भारत की आज़ादी के लिए शहीद हुए किसी भी बलिदानी का चित्र तक नहीं है.

तारीख 15 अगस्त, 1947- इस तारीख ने उस दौर के हर हिंदुस्तानी के चेहरे पर मुस्कान बिखेर दी थी, क्योंकि हम अंग्रेजों से आज़ाद हो गए थे. सपने थे, दुखों से निजात पाने की आकांक्षा थी. आंखों में नये हिंदुस्तान का सपना था और हर व्यक्ति यह मानकर चलने लगा था कि देश में अब घी-दूध की नदियां बहेंगी, क्योंकि सभी को उस वक्त देश के नेताओं पर भरोसा था. उन्हें यह अंदेशा नहीं था कि भविष्य में उनके साथ क्या होने वाला है?
तारीख 15 अगस्त, 2013-अब इस स्वतंत्रता दिवस पर बहुत कोशिश करने के बाद भी मन प्रफुल्लित नहीं हो पाता है. लालकिले पर भाषण सुनने की इच्छा नहीं होती. सरकारी विज्ञापनों को पढ़ना उबाऊ लगता है. कुल मिलाकर लगता यह है कि जैसे हम एक ऐसी अंधेरी सुरंग में चले गए हैं, जहां जाना बिल्कुल ज़रूरी नहीं था. आज देश का कौन-सा तबका है, जो खुश है. मेहनतकश हों, किसान हों, छात्र हों, बड़ी-बड़ी डिग्रियां लिए हुए नौजवान हों, बिना डिग्री लिए हुए बेक़ार-बेरा़ेजगार हों, या फिर नौकरी में रहने वाले सरकारी कर्मचारी हों, कोई भी खुश नहीं है. उनसे बड़े तबकों को देखें, तो व्यापारी, उद्योगपति, बड़ी कंपनी में काम करने वाले लोग, कोई भी तो खुश नहीं है. हर किसी को लगता है कि कहीं कोई कमी है. इस कमी को दूर करने का उपाय किसी के पास नज़र नहीं आता.
अगर कोई खुश नज़र आता है, तो वह है राजनीतिक दलों के सर्वोच्च वर्ग के नेताओं की जमात. उन्हें किसी प्रकार का दुख नहीं है. वह चाहे सत्ता में हों या विपक्ष में, उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कान दिखाई देती है. उन्हें हारने का ग़म नहीं. हार भी उन्हें जीत जैसा मज़ा और उसमें हिस्सेदारी दोनों देती है.
लेकिन राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता कतई खुश नहीं हैं, क्योंकि उनकी स्थिति अपने-अपने राजनीतिक दलों में दलाल जैसी हो गई है. अगर वे अपनी पार्टी के किसी सांसद, विधायक या मंत्री के पास खाली हाथ जाते हैं या किसी ऐसे व्यक्ति को साथ ले जाते हों, जो उन्हें कोई उपहार न दे सकता हो, तो वहां उनकी पूछ नहीं होती. टिकट मिलना तो पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए दूर की कौड़ी है. पहले टिकट परिवार के लोगों के लिए, उसके बाद टिकट नौकर, ड्राइवर और मुनीम के लिए और फिर जो जितने बड़े दाम में ख़रीद सके, उसके लिए टिकट उपलब्ध है. तभी तो राज्यसभा सांसद वीरेंद्र सिंह अनजाने में ख़ुलासा कर गए कि राज्यसभा की सीट की क़ीमत है तो 100 करो़ड, लेकिन उन्हें 80 करोड़ में मिल गई.
बातों से सभी पलटते हैं, वीरेंद्र सिंह भी पलट गए, लेकिन वीरेंद्र राजनीति में ख़रीद-बिक्री का पर्दा हटा गए. क्या इसीलिए स्वतंत्रता की लड़ाई देश की जनता ने लड़ी थी. क्या इसी के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिंद सेना बनाई थी, क्या इसलिए भगत सिंह, सुखदेव राजगुरु या उससे पहले अशफाक़उल्ला खां और ठाकुर रोशन सिंह व रामप्रसाद बिस्मिल जैसे कई अन्य वीर सेनानियों ने अपनी जान की कुर्बानी दी थी.
मुझे लगता है कि जो लोग भी आजकल भगत सिंह सुखदेव या रामप्रसाद बिस्मिल का नाम लेते हैं, उन्हें ये राजनेता महान मूर्ख मानते हैं. उन्हें लगता है कि उनके दिमाग़ में कोई ख़राबी आ गई है या दिमाग़ का कोई कल-पुर्जा ढीला हो गया है, जो आज़ादी के शहीदों का नाम लेते घूम रहे हैं. मैंने अपने संवाददाताओं से एक सर्वे कराया, जिसमें ख़ुलासा हुआ कि किसी भी नेता के घर में भारत की आज़ादी के लिए शहीद हुए किसी भी बलिदानी का चित्र नहीं है. चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अशफाक़उल्ला, ठाकुर रोशन सिंह व रामप्रसाद बिस्मिल ऐसे नाम हैं, जिनके पीछे सैकड़ों की कतार है, जिन्होंने आज़ादी के लिए गोली खाई या फांसी का फंदा चूमा. मुझे तो पूरा यकीन है कि अगर किसी सांसद से या मंत्री से आज़ादी की लड़ाई के बलिदानियों का नाम पूछें, तो उन्हें भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद के अलावा कोई तीसरा नाम शायद ही याद हो.
यह है 15 अगस्त, 1947 और 15 अगस्त, 2013 का फर्क. बेरोज़गारी ख़त्म करने की कोई योजना किसी सरकार या किसी दल के पास नहीं है. महंगाई समाप्त की नहीं जा सकती, क्योंकि सारे राजनीतिक दल महंगाई नाम की कंपनी के शेयर होल्डर हैं और भ्रष्टाचार सबके लिए आसान रास्ता है. इन्हें यह बिल्कुल नहीं लगता कि देश की जनता कभी ग़ुस्सा या नाराज़ भी होगी. इन्हें देश की आवाम निरीह, लाचार व बेवकूफ नज़र आती है. इसीलिए देश का सारा शिक्षा तंत्र इन्होंने बर्बाद कर दिया, ताकि बड़े पैसे वाले ही शिक्षा हासिल कर सके. दो-तिहाई हिंदुस्तान अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में भेजने के बारे में सोच भी न सकें और वही हाल इन्होंने स्वास्थ्य व्यवस्था का कर रखा है. अब लोग काग़ज़ पर साक्षर हो रहे हैं, स्कूलों में नहीं जाते. अब उन्हें सामान्य बुखार की दवाइयां भी नक़ली मिलती हैं. ग़रीब आदमी अब ज़िंदा रहने के बारे में सोचता ही नहीं. अगर किसी ग़रीब के परिवार का कोई व्यक्ति बीमार पड़ जाता है, तो वह मन ही मन सोचता है कि बीमार जल्द ही दुनिया से रुख़सत ले ले, नहीं तो इलाज में कितना पैसा ख़र्च होगा, कोई अंदाज़ा नहीं. अब तो अड़ोस-पड़ोस के लोग सामाजिक ताना भी नहीं देते कि तुम इलाज क्यों नहीं करा पा रहे हो, क्योंकि उनकी हालत भी कुछ जुदा नहीं है.
2013 में किसान हर आधे घंटे पर आत्महत्या कर रहे हैं, ऐसा कहा जा रहा है. खेती बर्बाद हो चुकी है. जो खेती करते हैं, उन्हें फसल का लाभ नहीं मिलता. उनकी ज़िंदगी निम्न मध्यम वर्ग की हो गई है. धीरे-धीरे सब कुछ गिरवी रखा जा रहा है और इस स्थिति ने हिंदुस्तान के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है. नौजवान इसलिए रास्ते से भटक रहे हैं, क्योंकि उनके पास रोजगार नहीं है. नौकरियां कम हो रही हैं, लेकिन हमारे राजनेता और सरकारी अधिकारी चेतना ही नहीं चाहते. 2013 आधा बीत गया, आधा बाक़ी है. इन बचे पांच महीनों में अगर देश के लोग खड़े हो गए और उन्होंने राजनेताओं से हिसाब पूछना शुरू कर किया, तो देश की कैसी तस्वीर होगी? सोचकर भी डर लगता है. अन्ना हजारे देश के लोगों को धैर्य रखने और देश के लोगों को अहिंसात्मक रास्ता अपनाने की सलाह दे रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ नक्सलवादी लोगों को हथियार उठाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. अन्ना हजारे की बात न मीडिया सुन रहा है और न अन्ना हजारे की बात सरकार सुन रही है. राजनीतिक दल उन्हें चुका हुआ व्यक्ति मानते हैं. जनता तकलीफ में है. परेशान है. कोई भी वर्ग खुश नहीं है. इस स्थिति से घबराकर अगर जनता देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दे. अगर रेल, सड़क यातायात रोकना शुरू कर दे और बहकावे में आकर हिंसा पर उतर आए, तो क्या तस्वीर बनेगी, डर लगता है. बहुत डर लगता है. हमारे देश में लोकतंत्र का धागा बहुत मजूबत है, लेकिन देश में जो लोकतंत्र चल रहा है, वह संविधान विरोधी है. जब अन्ना हजारे सारे देश में घूम कर संविधान के विपरीत चल रहे लोकतंत्र के विकृत स्वरूप को लोगों के सामने रखते हैं, तो लोग उत्साह से खूब तालियां बजाते हैं. आजकल किसी भी पार्टी के नेता की सभा में भीड़ नहीं हो रही है. भीड़ लाने के लिए बसों का, खाने का, दैनिक भत्ते का और कुछ इतर भी बहुत कुछ का लालच दिया जाता है, जबकि अन्ना हजारे की सभा में लोग अपना पैसा ख़र्च कर उनका भाषण सुनने जाते हैं.
मुझे डर स़िर्फ एक बात की है कि सरकार और राजनीतिक दलों की उदासीनता की वजह से अगर कहीं छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ. नौजवानों का आंदोलन शुरू हुआ. अगर कहीं किसानों ने यह सोच लिया कि आंदोलन करने से पहले आत्महत्या के कारकों में से किसी एक की जान ले लेनी है, क्योंकि वे तो जान देने ही जा रहे हैं, तो इस देश में क्या होगा. राजनीतिक दल भूल जाते हैं कि किसानों के बच्चे ही सबसे ज़्यादा सिपाही के रूप में सेना और पुलिस में भर्ती हैं. वो अपने घर के हालात से दिमाग़ी रूप से बहुत परेशान हैं. उन नौजवानों के ऊपर आज अनुशासन की हथकड़ी और बेड़ियां हैं, लेकिन अगर उन्हें अपने घरों से रोने की आवाज़ ज़्यादा सुनाई देगी, तो बहुत दिनों तक अनुशासन की हथकड़ी और बेड़ियां उन्हें बांध नहीं पाएंगी. वो अपने आप इन हथकड़ियों और बेड़ियों को तोड़ देंगे.
2013 का 15 अगस्त हमें खुशियां नहीं देता, डराता है, लेकिन सत्ता में और विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों को शायद 15 अगस्त, 2013 वैसा ही आम 15 अगस्त लगे, जैसा वो 1947 के बाद हर एक बार रिचुअल के रूप में मनाते आए हैं.

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