अन्ना ने अपने पत्र में प्रधानमंत्री को लिखा कि संसद में कई अन्य विषयों से जु़डे बिल पास हुए, लेकिन जिस बिल से पूरे देश की उम्मीदें जुड़ी हैं, उस जन-लोकपाल बिल को लेकर सरकार मौन है. संभव है कि कांग्रेस पार्टी के सामने मुश्किल आ रही हो कि इस संदर्भ में पहले से मौजूद व्यवस्थाओं में बिना कोई छेड़छाड़ किए हुए एक नई व्यवस्था को कैसे लागू किया जाए. लेकिन जब सरकार इस बाबत देश की जनता से यह वादा कर चुकी है तो उसे लोकपाल के रूप में एक व्यवस्था को स्थापित करना ही चाहिए.
अन्ना हजारे ने हाल ही में जनलोकपाल बिल पास करने की अपनी मांग को दोहराते हुए प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा. दो वर्ष पहले समूचे देश की जनता अन्ना हजारे के लोकपाल की मांग को अपना समर्थन देते हुए सड़कों पर उतर आई थी. तब सरकार ने यह वादा किया था कि वह एक लोकपाल बिल लाएगी, जो कि हो सकता है कि बिल्कुल ही वैसा न हो, जैसा कि अन्ना हजारे और उनके समर्थक चाहते हैं, लेकिन फिर बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार से निपटने के लिए ब़डे पैमाने एक व्यवस्था ज़रूर बनाई जाएगी. लेकिन दुर्भाग्य की बात तो यह है कि इसे दो वर्ष बीत गए और अब तक इस दिशा में कोई भी क़दम नहीं उठाया गया है.
अन्ना ने अपने पत्र में प्रधानमंत्री को लिखा कि संसद में कई अन्य विषयों से जु़डे बिल पास हुए, लेकिन जिस बिल से पूरे देश की उम्मीदें जुड़ी हैं, उस जनलोकपाल बिल को लेकर सरकार मौन है. संभव है कि कांग्रेस पार्टी के सामने मुश्किल आ रही हो कि इस संदर्भ में पहले से मौजूद व्यवस्थाओं में बिना कोई छेड़छाड़ किए हुए एक नई व्यवस्था को कैसे लागू किया जाए. लेकिन जब सरकार इस बाबत देश की जनता से यह वादा कर चुकी है तो उसे लोकपाल के रूप में एक व्यवस्था को स्थापित करना ही चाहिए. वास्तव में अगर कांग्रेस ऐसा नहीं करती है तो अगले लोकसभा चुनावों में उसे इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है. ऐसा इसलिए, क्योंकि भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए बड़े पैमाने पर कोशिश होनी चाहिए, यह आज भी एक बड़ा मुद्दा है.
यह भी सच्चाई है कि न तो भाजपा और न ही किसी अन्य दल ने इस समस्या के हल के लिए कोई विकल्प सुझाया. लेकिन सरकार देशवासियों और अन्ना हजारे से वादा करने के बावजूद भी अगर इस दिशा में कोई क़दम नहीं उठा रही है तो यह कांग्रेस पार्टी और देश की जनता दोनों के लिए ही दुखद है.

सरकार को चाहिए कि वह एक वैकल्पिक प्रस्ताव लेकर आए, जिसके माध्यम से मंत्रियों के भ्रष्टाचार को ख़त्म किया जा सके. इस व्यवस्था के तहत इस बात का संकट भी ख़त्म हो जाएगा कि हज़ारों लोगों की निगरानी कैसे हो पाएगी, क्योंकि यह केवल मिनिस्टीरियल करप्शन पर लगाम लगाएगा. इसकी ताक़त जनलोकपाल की तरह ही होगी, जो गंभीर आरोपों की जांच करेगा और जो आरोप अप्रासंगिक होंगे, उन्हें अस्वीकार कर सकेगा.

कम से कम सरकार को ऐसा करने के लिए एक कमेटी तो गठित ही करनी चाहिए. चाहे वह ऑल पार्टी कमेटी हो या फिर सिविल सोसाइटी के लोगों की हो, जो यह सुझाव दे भ्रष्टाचार के ख़ात्मे का सबसे उपयुक्त तरीक़ा क्या हो.
अन्ना हजारे ने जो सुझाव दिया है, हो सकता है कि उसको पूरी तरह लागू करने में मुश्किलें आएं. ऐसा इसलिए, क्योंकि अन्ना हजारे, लाखों सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाना चाहते हैं. ऐसा करने पर समानांतर रूप से एक और अधिकारी तंत्र स्थापित हो जाएगा.
सरकार को चाहिए कि वह एक वैकल्पिक प्रस्ताव लेकर आए, जिसके माध्यम से मंत्रियों के भ्रष्टाचार को ख़त्म किया जा सके. इस व्यवस्था के तहत इस बात का संकट भी ख़त्म हो जाएगा कि हज़ारों लोगों की निगरानी कैसे हो पाएगी, क्योंकि यह केवल मिनिस्टीरियल करप्शन पर लगाम लगाएगा. इसकी ताक़त
जनलोकपाल की तरह ही होगी, जो गंभीर आरोपों की जांच करेगा और जो आरोप अप्रासंगिक होंगे, उन्हें अस्वीकार कर सकेगा. देखते हैं कि प्रधानमंत्री इस पत्र के जवाब में क्या कहते हैं. यह उम्मीद करनी चाहिए कि कुछ सकारात्मक परिणाम निकलकर आएंगे.
दूसरा सवाल, जोकि मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री की चिंता बढ़ा सकता है, वह यह कि उनके सा़ढे नौ वर्ष के कार्यकाल के बाद उन्होंने क्या हासिल किया और क्या अधूरा रह गया? निश्‍चित तौर पर उनके कुछ व्यक्तिगत एजेंडे होंगे और कुछ प्राथमिकताएं होंगी जो उन्होंने अपने पहले और फिर दूसरे कार्यकाल के दौरान तय की होंगी.
मुझे यह भी यक़ीन है कि प्रधानमंत्री जब भी कभी अकेले में सोचते होंगे, तो यह ज़रूर महसूस करते होंगे कि उन्होंने कई मौक़ों को खो दिया है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भले ही वह मौक़ा पाकिस्तान से जुड़ा हो, चीन से जुड़ा हो, संयुक्त राष्ट्र से या फिर ईरान से.
राष्ट्रीय मुद्दों के संदर्भ में देखें तो यहां भी प्रधानमंत्री कई मुद्दों पर असफल रहे हैं. अर्थव्यवस्था के मसले पर मैं प्रधानमंत्री को अधिक दोष इसलिए नहीं दे सकता, क्योंकि अर्थव्यवस्था का अपना एक चक्रीय क्रम होता है. लेकिन क़ानून-व्यवस्था के मसले पर, माओवाद के मसले पर व दूसरे कई ऐसे मुद्दे हैं, जिसपर सरकार को सार्थक क़दम उठाने चाहिए थे. माओवाद, दरअसल क़ानून और व्यवस्था की कमी से उपजी समस्या है और इसका निदान पुलिस और सेना के माध्यम से खोजकर यह सरकार वास्तव में नरेंद्र मोदी की सोच को ही और बल दे रही है. आरएसएस और भाजपा इसी विचारधारा में विश्‍वास करती हैं. वे बातचीत में विश्‍वास नहीं करते, मतभेद बनाए रखने में विश्‍वास करते हैं. चाहे वह मुसलमानों के मामले में हो या सांप्रदायिकता के संदर्भ में या फिर पड़ोसी देश पाकिस्तान के संदर्भ में.
वास्तव में ये लोग अमेरिका से प्रेरित हैं. अमेरिका भले ही हज़ारों मील दूर बैठा है, लेकिन अपनी ताक़त से उसकी पहुंच यहां तक है. अमेरिका जिस स्वतंत्र और निजी औद्योगिक व्यवस्था में विश्‍वास करता है, वही औद्योगिक नीति जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की भी है. आख़िर आरएसएस का काडर क्या है? उसके काडर छोटे व्यापारी हैं. चाहे वे दिल्ली के चांदनी चौक में हों, मुंबई के काल्बा देवी में या उसी तरह से दक्षिण भारतीय बाज़ारों में. यही वजह है कि उनके सभी मेनीफेस्टो में जो सबसे मुख्य मुद्दा होता है, वह सेल टैक्स में सुधार का होता है, क्योंकि यह उनके काडर से जुड़े लोगों को प्रभावित करता है.
हाल के दिनों देश का कॉरपोरेट जगत भी नरेंद्र मोदी के समर्थन में उतर आया है. हालांकि, जो भी प्रधानमंत्री बनता है, यह वर्ग उनके समर्थन में दिखाई देने लगता है, इसलिए यह कोई चिंता का विषय नही हैं. असली चिंता है केवल मुश्किलें गिनाना और उनका हल न खोजना. भले ही भाजपा के पास कोई एजेंडा न हो, लेकिन कांग्रेस पार्टी तो हमेशा ही एक नेशलन एजेंडा बनाकर चलती रही है, लेकिन अब वह भी इससे भटक रही है. प्रधानमंत्री को इन सभी मुद्दों पर बात करनी चाहिए थी. अब आगामी लोकसभा चुनाव के लिए केवल छह महीने बचे हैं. अगर अभी भी प्रधानमंत्री इन मुद्दों पर बात करते हैं तो यह देश के लिए भी बेहतर होगा और कांग्रेस पार्टी के लिए भी.

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