मानो सदियों पहले की रात थी वो। नशिस्त थोड़ी लम्बी खिंच गयी थी…तमाम शायरों के चले जाने के बाद भी वो पतला सा, दुबला सा लड़का रात की नीम-बेहोशी संग मेरे साथ टिका रहा। देर बाद…बहुत देर बाद, जाते-जाते उस पतले से, दुबले से लड़के ने एक शेर सुनाया। वो शेर, जिसे सुन कर रात की नीम-बेहोशी ने उदासी और मदहोशी का ऐसा काॅकटेल पिलाया कि अब सारी की सारी रातें उसी शेर के नशे में डूबी रहती हैं…

“तेरी फ़ुरकत का अमृत पिया
और उदासी अमर हो गई”

वो पतला सा, दुबला सा लड़का जिसे कायनात इरशाद के नाम से जानती है…इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’ और सिकंदर ही तो ठहरा वो मेरी ग़ज़लों की सिमटी दुनिया का। वो सिकंदर जो कहता है ग़ज़ल तो मैं बस आह से उफ़ तक की जर्नी में टू एंड फ्रो करता रह जाता हूँ…

“बहुत चुप हूँ कि हूँ चौंका हुआ मैं
ज़मीं पर आ गिरा उड़ता हुआ मैं
बदन से जान तो जा ही चुकी थी
किसी ने छू लिया ज़िंदा हुआ मैं
ब-ज़ाहिर दिख रहा हूँ तन्हा तन्हा
किसी के साथ हूँ बिछड़ा हुआ मैं
मेरी आँखों में आँसू तो नहीं हैं
मगर हूँ रूह तक भीगा हुआ मैं
बनाई किस ने ये तस्वीर सच्ची
वो उभरा चाँद ये ढलता हुआ मैं”

इरशाद की ग़ज़ल के शेर सुनता हूँ तो अक्सर…अक्सर ही लगता है कि ये बात…ठीक यही बात मेरी भी तो है। एक पोयेट की रीच का एक्सटेंट यही तो होना चाहिये ना कि जो सुने, उसे लगे हायsss…

“हमने ख़ुद को मुफ़्त हाज़िर कर दिया
और ये क़ीमत उन्हें मंहगी लगी”

“समुंदर बौखलाया फिर रहा है क्यूँ
किनारे फिर कोई कश्ती लगी है क्या”

मुहब्बत में सटायर भरता हुआ इरशाद अपने मासूम से चेहरे-मोहरे पर तनिक और-और मासूम लगने लगता है…

“बढ़ाया इश्क़ ने रुतबा हमारा
पढ़ा जाता है अब लिक्खा हमारा
कहो अपनी…हम अपनी क्या सुनाएँ
वही हम हैं…वही कमरा हमारा
हमें मालूम है खिड़की खुली है
मगर अब जी नहीं लगता हमारा
महीने साल बासी पड़ चुके सब
मगर ताज़ा रहा मिलना हमारा
पलट आते हैं अपनी शायरी में
कोई जब दुख नहीं सुनता हमारा”

जानने वाले जानते हैं कि इरशाद टैलेंट का एटम-बाॅम्ब है ।भोजपुरी, मैथिली गानों के हिट अलबम देने के अलावा ये सरफ़िरा लड़का कमाल के भजन भी लिखता है । कैसी तो कैसी फिलाॅस्फी मारता है ये कमबख़्त अपनी कमसिन उम्र की बाक़ायदा धज्जियाँ उड़ाते हुए…

“बंद दरवाज़े खुले रूह में दाख़िल हुआ मैं
चंद सज्दों से तेरी ज़ात में शामिल हुआ मैं
खींच लाई है मोहब्बत तेरे दर पर मुझ को
इतनी आसानी से वर्ना किसे हासिल हुआ मैं
मुद्दतों आँखें वज़ू करती रहीं अश्कों से
तब कहीं जा के तेरी दीद के क़ाबिल हुआ”

सुनाने बैठूँ इस इरशाद नाम के बावरे के बारे में तो उम्र का एक हिस्सा डेडिकेट करना पड़ेगा। इन ख़ूबसूरत ग़ज़लों को पढ़िये “आँसुओं का तर्जुमा” और “दूसरा इश्क़” में जो राजपाल प्रकाशन से आयी हैं और दोनों ही किंडल पर उपलब्ध हैं। अच्छी शायरी के आशिक़ों की आलमारी में ये दोनों किताबें हुआ चाहती हैं।

मुहब्बत-की-मुहब्बत-से-मुहब्बत-के-लिये की ज़ुबां वाले इरशाद को इस युनीवर्स की तमाम ब्लेसिंग्स के साथ आख़िर में सीने में धुकधुकी उठाता उसका एक शेर…

“बदन से पहली मुलाक़ात याद है तुमको
हमारा इश्क़ है उस वाक़ये से पहले का”

(लेखक प्रसिद्ध कहानीकार एवं शायर हैं और वर्तमान समय में भारतीय सेना में कर्नल के पद पर हैं)

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