कितनी भीड़ थी उस दिन इंडिया गेट पर। किसी तरह हमें थोड़ी सी जगह मिल पायी थी भूरे होते घास पर। तुम्हारे मना करने के बाद भी अपना रुमाल बिछा दिया था तुम्हारे बैठने को। जब तुम बैठी तो मन ही मन सरोजिनी नगर मार्केट के उस बूढ़े को शुक्रिया कहा जिसने ज़बरदस्ती मुझे 50 रुपये के 5 रुमाल बेच दिए थे। उस दिन ऑटो के बजाय 615 नम्बर की बस पकड़ कर घर गया था। अच्छा छोड़ो।

मैं घास पर और तुम रुमाल पर थी। पास-पास होकर भी दूर। बार-बार चाय और चिप्स वाला हमें डिस्टर्ब कर रहा था। लेकिन, हम भी पक्के आशिक़ थे। सब झेलते हुए बैठे रहे। तुम मेरी नॉनसेन्स सी बातों पर भी किस अदा से मुस्कुरा लेती थी। तुम्हारी इस हुनर का तो मैं आज भी कायल हूँ।

कितनी देर बैठे रहे थे हम। फोन आने पर जब तुमने अपनी मम्मी को बताया कि लाइब्रेरी में हूँ तो पहली बार लगा कि इश्क़ में झूठ भी बोलना पड़ता है। वो आदत तुम्हारी आज तक नहीं गयी। नहीं तो तुम इतनी आसानी से नहीं कहती कि जाओ अब हमारे बीच कुछ भी नहीं बचा। है न?

एक प्रेमी की डायरी से चुन कर कुछ पन्ने हम आपके लिए लाते रहेंगे…..

“हीरेंद्र झा”

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