यूपीए सरकार के दस साल पूरे होने वाले हैं. इन दस सालों में क्या हुआ? हम विकास की राह पर कहां तक पहुंचे? भारत आगे बढ़ा या पीछे छूट गया? देश की एकता व अखंडता मजबूत हुई या फिर हम बिखरने लगे? वर्षों से चल रही समस्याओं का क्या हुआ? सरकार की नीतियां कितनी सफल हुईं और संवैधानिक संस्थाओं पर लोगों का विश्‍वास कितना बढ़ा? इतिहास मनमोहन सिंह सरकार का किस तरह आकलन करेगा? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब आने वाले दिनों में ढूंढा जाएगा.

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पिछले दस सालों में मनमोहन  सरकार की योजनाओं का फायदा समाज के गरीब वर्ग को नहीं हुआ. सरकारी नीतियों का फायदा गिने-चुने तीन से पांच फीसद लोगों को पहुंचा है. किसानों की हालत ऐसी हो गई कि वे आत्महत्या कर रहे हैं. भारत में हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या कर रहा है. यह किसी भी सरकार के लिए शर्मनाक स्थिति है.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के बारे में चर्चा करने से पहले एक घटना सुनाता हूं. वीपी सिंह के इस्तीफे के बाद देश में चंद्रशेखर जी की सरकार बनी. मनमोहन सिंह इस सरकार के आर्थिक सलाहकार थे. राजनीतिक परिस्थिति ऐसी बनी कि सरकार गिर गई. चंद्रशेखर जी ने प्रधानमंत्री पद से 6 मार्च, 1991 को इस्तीफा दिया था, लेकिन वे अगले चुनाव तक प्रधानमंत्री पद पर बने रहे. सरकार के जाने के बाद चंद्रशेखर जी अपने सहयोगियों के साथ बैठकर आगे की रणनीति बना रहे थे. मनमोहन सिंह भी चंद्रशेखर जी से आकर मिले. उदास मन से मनमोहन सिंह ने पूछा, अब मेरा क्या होगा. अब मैं क्या करूंगा. वहां मौजूद लोग चक्कर खा गए कि मनमोहन जी क्या कह रहे हैं. एक तरफ तो सरकार गिर गई है, सब दुखी हैं और इन्हें अपनी चिंता लगी हुई है. मनमोहन सिंह ने आगे जो कहा, वह भी चौंकाने वाला था. उन्होंने चंद्रशेखर जी से कहा कि यूजीसी के चेयरमैन की सीट खाली है, मुझे वहां भेज दीजिए. चंद्रशेखर जी ने शायद इस्तीफा देने के बाद अकेला यही फैसला लिया. मनमोहन सिंह 15 मार्च, 1991 को यूजीसी के चेयरमैन बन गए.
मनमोहन सिंह के दस साल के शासन के बाद देश के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है. आज देश में प्रजातांत्रिक संस्थाओं के प्रति लोगों का भरोसा उठ गया है. कांग्रेस पार्टी ने पिछले दस सालों में इस   तरह से देश को चलाया है, जिससे बड़ी-बड़ी महत्वपूर्ण संस्थाओं के औचित्य व सार्थकता पर सवाल उठने लगे हैं.दरअसल, मनमोहन सिंह एक पदलोलुप (कैरियरिस्ट) व्यक्ति हैं. उनमें एक ऐसे पेशेवर अधिकारी के गुण हैं, जो हर पल अपनी पदोन्नति की चिंता में मग्न रहता है. मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री भले ही हैं, लेकिन वे कोई राजनेता नहीं हैं. वे जन नेता भी नहीं हैं. 2004 से पहले वे वित्त मंत्री भी रहे, लेकिन जनता के साथ कोई रिश्ता नहीं बना सके. एक कड़वा सच यह है कि देश के अधिकांश लोगों को यह भी पता नहीं है कि राज्यसभा में वे किस राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं. वे अच्छा भाषण नहीं दे सकते और न ही युवाओं मे जोश भर सकते हैं. वे जनता के दिलों पर राज करने वाले प्रधानमंत्री नहीं हैं और न ही कांग्रेस पार्टी के सर्वमान्य नेता हैं. यही नहीं, उनकी कैबिनेट के सहयोगी भी उन्हें अपना नेता नहीं मानते हैं. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री सिर्फ इसलिए बने, क्योंकि उन्हें सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद के लिए चुना था. एक गैर राजनीतिक व्यक्ति को देश का प्रधानमंत्री बना कर कांग्रेस ने जो गलती की है, उसका खामियाजा आने वाले कई सालों तक कांग्रेस को भुगतना पड़ सकता है.
जब 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो देश के लोगों को लगा कि एक पढ़ा-लिखा, विश्‍वस्तरीय अर्थशास्त्री भारत को एक सुपरपावर बनाएगा, लेकिन आज देश की जनता निराश है. निराशा का स्तर यह है कि ऐसा लगता है कि मानो देश किसी ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है, जो कभी भी भड़क सकता है. इसमें कोई शक नहीं है कि यूपीए सरकार के दस साल आजाद भारत के इतिहास का सबसे काला धब्बा साबित हुआ है. इस दौरान एक के बाद एक व एक से बढ़कर एक समस्याएं आती रहीं, लेकिन अफसोस किसी का भी समाधान नहीं निकला. कृषि की हालत पहले से बदतर हुई. उद्योग का विकास थम गया. विदेशी निवेश आने बंद हो गए. निर्यात को झटका लगा. बेरोजगारी बढ़ी. मंहगाई बढ़ी. बाजार मंदा हुआ. सोना मंहगा हुआ. इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास का काम बिल्कुल ठप्प रहा. सड़क नहीं, पानी नहीं और बिजली की कमी लगातार बनी रही. यूपीए के शासनकाल में लोग हमेशा परेशान रहे. हैरानी की बात यह है कि सरकार इन समस्याओं से निपटने के बजाए आंकड़ों की जालसाजी के जरिये जनता को धोखा देती रही. वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री झांसा देते रहे कि भारत दुनिया में सबसे तेजी से विकास करने वाला देश बन गया है. यूपीए की कलई तब खुली, जब रुपये का मूल्य रसातल में चला गया.
पिछले दस सालों में मनमोहन सिंह की सरकार की योजनाओं का फायदा समाज के गरीब वर्ग को नहीं हुआ. पिछले दस सालों में सरकारी नीतियों का फायदा गिने-चुने तीन से पांच फीसद लोगों को पहुंचा है. किसानों की हालत ऐसी हो गई कि वे आत्महत्या कर रहे हैं. आंकड़ों के मुताबिक, भारत में हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या कर रहा है. यह किसी भी सरकार के लिए शर्मनाक स्थिति है. विकास के नाम पर किसानों की जमीन जितनी इन दस सालों में छीनी गई, वैसा पहले कभी नहीं देखा गया. सरकार की भूमिका मानो किसी प्रॉपर्टी डीलर जैसी हो गई है. किसानों की जमीन छीन कर निजी कंपनियों को देकर उन्हें करोड़ों-अरबों का फायदा पहुंचाना सरकार की नीति बन गई. किसानों के लिए पानी नहीं है, लेकिन नदियों के पानी को निजी कंपनियों को दिया जा रहा है. विदेशी कंपनियों की वजह से खाद व बीज की कीमत आसमान छू रही है. खेती करना मंहगा सौदा हो गया है. दूसरी तरफ जंगलों में रहने वाली जनजातियों की हालत किसानों से भी बदतर है. औद्योगीकरण व खनन के नाम पर जंगल कट रहे हैं. उनकी जिंदगी व आशियानों को नष्ट किया जा रहा है. पिछले दस सालों में सरकार की एक भी पुनर्वास योजना सफल नहीं हुई.
सच्चाई तो यही है कि पिछले दस सालों में यूपीए सरकार किसानों और जनजातियों को खुशहाल करने व उनकी समस्याओं का समाधान निकालने में पूरी तरह से विफल रही है, लेकिन कांग्रेस पार्टी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का बड़ा दंभ भरती है. 2009 के चुनाव से पहले यूपीए सरकार ने किसानों का कर्ज माफ कर चुनावी फायदा जरूर उठाया, लेकिन जब सीएजी की रिपोर्ट आई तो पता चला कि मनरेगा व कर्ज माफी योजना में घोटाला हुआ है. मनरेगा में अनियमितताओं को लेकर इतनी सारी मीडिया रिपोर्ट आ चुकी हैं कि लोगों ने तो अब यह मान लिया है कि देश का पैसा इस योजना के जरिये बर्बाद किया जा रहा है. पता नहीं मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री चिदंबरम का यह कौन सा अर्थशास्त्र है, जिसमें असफल योजानाओं और सरकारी पैसे की बर्बादी को अपनी उपलब्धि बताते हैं.
जब मनमोहन सिंह 2004 में प्रधानमंत्री बने तो पहले पांच साल का वक्त यूं ही बीतता चला गया. सच्चाई ये है कि एनडीए की सरकार के दौरान हुए कामों और विकास की वजह से यूपीए-1 के दौरान विकास की गति बरकरार रही. मनमोहन सिंह सरकार सिर्फ आंकड़ों की कलाबाजी करती रही और क्रेडिट लेती रही. यूपीए-1 के दौरान सरकार ने हर सफलता का क्रेडिट लिया और हर विफलता के लिए गठबंधन धर्म को दोषी ठरहाया. यूपीए-1 को लेफ्ट पार्टियों का समर्थन था तो हर असफलता के लिए कांग्रेस ने लेफ्ट पार्टियों को जिम्मेदार ठहराया. जब 2009 में चुनाव हुए तो जनता ने मनमोहन सिंह की सरकार को फिर से सरकार चलाने का मौका दिया था, क्योंकि वे ईमानदार हैं. जब उन्हें एक बार फिर से मौका मिला तो उन्हें हर कोशिश करनी चाहिए थी कि जनता के विश्‍वास को और भी मजबूती प्रदान करें. उन्हें 2009 के बाद भ्रष्टाचार खत्म करने के उपाय करने थे, नौकरशाही में बदलाव लाकर उन्हें जिम्मेदारी निर्धारण करने के उपाय करने थे. असफल योजनाएं कैसे सफल हों, उसकी रणनीति बनानी थी. सरकार का पैसा सही लोगों तक पहुंचे, उसके रास्ते निकालने थे. सरकारी कामकाज में पारदर्शिता कैसे लाई जाए व जबावदेही कैसे तय की जाए, इस पर फैसला लेना था. देश की आर्थिक स्थिति खराब होने लगी थी, उसे पटरी पर कैसे लाया जाए, उस पर नीतियां बनानी थीं, लेकिन अफसोस की बात है कि मनमोहन सिंह ने न सिर्फ जनता का विश्‍वास तोड़ा है, बल्कि खुद का दामन भी दागदार कर दिया. मनमोहन सिंह न सिर्फ खुद को अब तक का सबसे कमजोर, बल्कि फैसले न लेने वाला प्रधानमंत्री घोषित करने में जुट गए.
मनमोहन सिंह के दस साल के शासन के बाद देश के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है. आज देश में प्रजातांत्रिक संस्थाओं के प्रति लोगों का भरोसा उठ गया है. कांग्रेस पार्टी ने पिछले दस सालों में इस तरह से देश को चलाया है, जिससे बड़ी बड़ी महत्वपूर्ण संस्थाओं के औचित्य व सार्थकता पर सवाल उठने लगे हैं. अगर सीबीआई सरकार के मंत्रियों से जांच रिपोर्ट बदलवा कर सुप्रीम कोर्ट में पेश करे तो ऐसी जांच पर कौन विश्‍वास करेगा. सरकार पर कौन विश्‍वास करेगा और वह भी ऐसे केस में, जिसमें स्वयं प्रधानमंत्री पर शक की सुई हो. मनमोहन सिंह ने पहले सीवीसी की नियुक्ति में गड़बड़ी की. एक दागी को सीवीसी बना दिया. सुप्रीम कोर्ट ने जब कड़े आदेश दिए, तब जाकर उसे बदला गया. देश में पहली बार सुप्रीम कोर्ट में एक थल सेना अध्यक्ष और सरकार आमने-सामने हो गई. पहली बार मनमोहन सिंह की सरकार से सुप्रीम कोर्ट ने हलफनामा दाखिल करने को कहा. कोर्ट का विश्‍वास सरकार पर से उठ गया, क्योंकि कई बार कोर्ट ने सरकार को कोर्ट के अंदर झूठ बोलते और माफी मांगते पकड़ा है. कई बार इस सरकार के नुमाइंदों ने लोकसभा और राज्यसभा में झूठ बोला. पहली बार सीएजी और सरकार के बीच तू-तू-मैं मैं हुई, जबकि संविधान में साफ लिखा है, अंबेडकर और नेहरू ने संविधान सभा में भी समझाया कि सीएजी का महत्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया से कम नहीं है, लेकिन कांग्रेस पार्टी के नेता व मंत्री सत्ता के नशे में इतने चूर नजर आए कि उन्होंने सीएजी को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
इतना ही नहीं, लोकसभा के अंदर भी आजीबोगरीब नाटक चलता रहा. अन्ना हजारे के अनशन को खत्म करने के लिए रात भर संसद में बहस होती रही, जनलोकपाल लाएंगे, ऐसा प्रस्ताव भी पास हुआ और मनमोहन सिंह के काबिल नेतृत्व के चलते पहली बार सरकार संसद में पास हुए प्रस्ताव से मुकर गई. आधार कार्ड को देखिए, इससे जुड़ा बिल संसद से पास नहीं हुआ है, लेकिन देश में करोड़ों कार्ड बना दिए गए हैं, जबकि इसकी वैधता पर एक केस सुप्रीम कोर्ट में सुना जा रहा है.
यूपीए-2 के दौरान कई स्थायी समितियों और चयन समितियों में उठापटक होती रही. पहली बार यूपीए सरकार के दौरान संसदीय समितियों का राजनीतिकरण देखा गया. इतना ही नहीं, संसद का सबसे ज्यादा समय बर्बाद करने का रिकॉर्ड भी यूपीए-2 ने अपने नाम किया है. मतलब यह कि मनमोहन सिंह को इतिहास में एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाएगा, जिनके शासनकाल में देश की महत्वपूर्ण सस्थाओं का क्षरण हुआ है. वैसे मनमोहन सिंह की दूसरी पारी में सबसे बड़ी चुनौती तो यह थी कि कैबिनेट के अंदर प्रधानमंत्री की प्रमुखता को फिर से स्थापित करना था, लेकिन वे प्रधानमंत्री की गरिमा को स्थापित करने में भी विफल रहे हैं. अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि आज सोशल मीडिया में भारत का प्रधानमंत्री एक मजाक का पात्र बना हुआ है.
देश में 270 जिले ऐसे हैं, जो नक्सलवाद से प्रभावित हैं. जब मनमोहन सिंह ने इस देश में उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू किया, तब से नक्सलवाद करीब 30 जिलों से बढ़ कर 270 जिलों तक पहुंच गया. इन जगहों पर सरकार नहीं है. यहां समानांतर सरकार चल रही है. मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को एक राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला बताया था, लेकिन हर साल सैकड़ों जानें जाती हैं, लेकिन पिछले दस सालों में उन्होंने कोई भी ठोस कदम नहीं उठाए और न ही कोई शुरुआत की. लोग मरते रहे, अर्धसैनिक बल के जवान शहीद होते रहे, लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकला. एक तरफ नक्सली संगठन आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हैं तो दूसरी तरफ पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश, साथ ही साथ नेपाल के साथ भी रिश्ते खराब हो चुके हैं. पाकिस्तान बॉर्डर पर तनाव है. पाकिस्तानी सेना की तरफ से सीज फायर का उल्लंघन होता रहा है. हमारे जवान शहीद हो रहे हैं, उधर आए दिन चीन की सेना सरहद के अंदर घुस आती है. विदेश मंत्रालय और उसकी नीतियों में विरोधाभास की वजह से बाह्य खतरा भी मंडरा रहा है. भारत की आर्थिक स्थिति और प़डोसियों व शक्तिशाली देशों के साथ रिश्तों में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं हुए हैं. कुछ साल पहले तक देश सुपरपावर बनने की तरफ बढ़ रहा था. संयुक्त राष्ट्र संघ के सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी थी. अब हालत यह है कि इसके बारे में बात करना भी मजाक लगने लगा है.
एक जमाना था जब बोफोर्स घोटाले के नाम पर देश की राजनीति बदल गई. सरकार को चुनाव हारना पड़ गया था. वह घोटाला महज 64 करो़ड का था, लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार की कृपा से देश में आज 64 करोड़ रुपये के घोटाले को घोटाला नहीं माना जाता है, क्योंकि मनमोहन सिंह सरकार घोटाले के सारे रिकॉर्ड को तोड़ चुकी है. अगर यूपीए के दौरान हुए घोटालों के बारे में जिक्र किया जाए तो यह अखबार ही पूरा भर जाए, लेकिन घोटालों के इतिहास में जो कीर्तिमान यूपीए ने बनाए हैं, उसका जिक्र करना जरूरी है. मनमोहन सिंह की सरकार देश की पहली सरकार है, जिसका कोई मंत्री जेल गया हो. पहली बार देश को पता चला है किस तरह सरकार में बैठे लोग निजी कंपनियों के साथ मिल कर अरबों-खरबों की हेरा-फेरी कर देते हैं. दुनिया का कोई भी देश ओलंपिक या विश्‍व कप का आयोजन करता है तो उससे वह देश अपनी इज्जत में इजाफा करने की नीयत से काम करता है. मनमोहन सिंह सरकार के दौरान उनकी ही पार्टी के लोग कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन के बहाने हजारों करोड़ रुपये निगल गए. पूरी दुनिया में बदनामी हुई, लेकिन मनमोहन सिंह जी किसी भी घोटालेबाज को सजा नहीं दिलवा सके.
भ्रष्टाचार का आलम तो यह है कि प्रधानमंत्री भी नहीं बच पाए. पहली बार किसी घोटाले में प्रधानमंत्री कार्यालय पर शक की सुई जा टिकी है. कोयला घोटाले के पर्दाफाश होते ही मनमोहन सिंह ने ऐलान किया था कि अगर उन पर शक की सुई भी आई तो वे सार्वजनिक जीवन का परित्याग कर देंगे. मनमोहन सिंह जब कोयला मंत्री थे, तब कोयला खदानों का आवंटन हुआ था. हर आवंटन पर उनके दस्तखत हैं. सारी कार्रवाई प्रधानमंत्री कार्यालय से हुई है, यही आरोप है. सीबीआई ने जांच की, जिसकी रिपोर्ट मनमोहन सिंह के करीबी मंत्री अश्‍विनी कुमार ने बदल दी. मामला सिर्फ घोटाले का नहीं रहा, बल्कि यह चोरी और सीनाजोरी में तब्दील हो गया, लेकिन कोर्ट में इन करतूतों का पर्दाफाश हो गया. अश्‍विनी कुमार को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया गया. मामला कोर्ट में चल ही रहा था कि पता चला कि कोलया घोटाले से जुड़ी फाइलें मंत्रालय से गायब हैं. फाइलों के पैर नहीं होते, इसलिए वह स्वतः गायब नहीं हुईं, बल्कि गायब की गई हैं. जांच चल रही है, लेकिन कोयला घोटाले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों इतनी आपत्तिजनक टिप्पणियां की हैं कि कोई भी आत्मसम्मान वाला और राजनीतिक मर्यादा को मानने वाला व्यक्ति इस्तीफा दे चुका होता. मनमोहन सिंह ने एक ईमानदार प्रधानमंत्री की छवि के साथ 2004 से शुरुआत की थी, लेकिन 2013 में वह लोगों की नजरों में ईमानदार नहीं रहे. अब लोग उन्हें मिस्टर क्लीन नहीं मिस्टर क्लीन अप कहने लगे हैं.
 

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